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चरकसंहिता - भा० टी० ।
मः । तत्रमधुरोरसः शरीरसात्म्याद्रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमजौजः शुक्राभिवर्द्धन आयुष्यः षडिन्द्रियप्रसादनोवलवर्णकरःपित्तविषमारुतन्नस्तृष्णाप्रशमनस्त्वच्यः केश्यः कण्ठ्यः प्रीणनो
जीवनस्तर्पणःस्नेहनःस्थैर्य्यकरःक्षीणक्षतसन्धानकरोघ्राणसुखकण्ठौष्ठतालुप्रह्लादनादाहमूर्च्छाप्रशमनः षट्पदपिपीलिकानामिष्टतमः स्निग्धः शीतोगुरुश्च ॥ ५८ ॥
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अव उन ६ रसोंमें एक एक द्रव्यमें पृथक २ होनेसे जो गुण, कर्म होते हैं उनका वर्णन करते हैं । मधुर रस शरीर के सात्म्य होनेसे रस, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, ओज, शुक्र इन धातुओंकी वृद्धि करता है तथा आयुको बढाता है । पंचेन्द्रिय और एक अतीन्द्रिय (मनको ) प्रसन्नता देता है, बल तथा वर्णको उत्तम बनाता है । पित्त, विष, वायु, और तृषाको नष्ट करता है। त्वचा, केश, और कण्ठको उत्तम करता है तथा प्रीणन (शरीरको पुष्ट करना) जीवन, तर्पण, स्नेहन करता है तथा आयुको स्थिर करता है । क्षीण, क्षतपीडित मनुष्योंको सन्धान करता है नाक, मुख, कण्ठ, ओष्ठ, और ताउको प्रसादन करना है । दाह, तथा मूर्च्छाको शान्त करता है । भ्रमर, चींटी आदिकों को अत्यन्त प्रिय है । तथा स्निग्ध, शतिल और भारी गुणयुक्त है ॥ ५८ ॥
स एवं गुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानः स्थौल्यं मार्दवमालस्यमतिस्वप्नं गौरवजनन्नाभिलाषमग्नदौर्बल्यमास्यकण्ठमांसाभिवृद्धिं श्वासकासप्रतिश्यायालसकशीतज्वरानाहास्वमाधुर्यवमथु संज्ञा स्वरप्रणाशगण्डमालाश्लीपदगलशो फबस्तिधमनी - गुदोपलेपाक्ष्यामयानमभिष्यन्दमित्येवंप्रभतीन्कफजान्विका
रानुपजनयति ॥ ५९ ॥
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इस प्रकार गुणयुक्त होनेपर भी मधुररसको सदैव और निरंतर सेवन करने से मनुष्योंके शरीर में मोटापन, नम्रता, आलस्य, निद्राधिक्य, गौरवता, मंदाग्नि, अरुचि, मुख तथा कण्ठके मांसकी वृद्धि, श्वास, खांसी, प्रतिश्याय, अलसक, शीतज्वर, अफारा, मुखमें मीठापन, छर्दि संज्ञा और स्वरका नाश, गलगण्ड, गण्डमाला, श्लीपद, गलशोथ आदि रोगोंको करता है तथा वस्ति, धमनी और मलद्वारमें दोषका उपलेपसा करता है । एवम् नेत्रों के अभिष्यन्द आदि रोगोंको तथा' फके विकारोंको उत्पन्न करता है ॥ ५९ ॥