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(३०२) चरकसंहिता-भा० टी०। लेखन है, एवम् क्लेद, मेद, वसा, मजा, लसिका, राध, पसीना, मूत्र, मल,पित्त और कफको सुखाताहै तथा रूक्ष शीत और लघु गुण वाला है ॥ ६६ ॥. सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानाक्ष्यिात्खरविषदस्वभावाच्चरसरुधिरमांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राण्युच्छोषयतिस्रोतसांखरत्वमुपपादयतिवलमादत्तेकर्षयतिमोहयतिवदनमुपशोपयति, अपरांश्चवातविकारानुपजनयति ॥ ६७॥ इन गुणांवाला होनेपर भी तिक्त रस अत्यन्त सेवन कियाहुआ रूक्ष, खर और विपद होनेसे, रस, रुधिर, मांस मेद, अस्थि, मज्जा, और शुक्रको सुखाताहै । रोममााँको खदरा करताहै, वलको हरताहै, शरीरको कृश करताहै, मोहको उत्पन्न करता है, मुखको सुखादेताहै, एवम् विकारोंको उत्पन्न करताहै ॥ ६७ ॥
कपायोरसःसंशमनःसंग्राहीसन्धारणःपीडनोरोपणःशोषणः स्तम्भनाश्लेष्मरक्तपित्तप्रशमनःशरीरक्लेदस्योपयोक्ता रूक्षः शीतोगुरुश्च ॥ ६८॥ कपाय रस-संशमन है, संग्राही है, संधारण है तथा पडिन, रोपण, शोषर और स्तम्भन करताहै । कफ तथा रक्तपित्तको शान्त करताहै, शरीरके क्लेदवा हरताह एवम् रूक्ष शीतल और गुरु है ॥ ६८॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानआस्यशोषयति, हृदयं पीडयति; उदरमाध्मापयति,वाचंनिगृह्णाति, स्रोतांस्यववनाति, श्यावत्वमापादयति,पौंस्त्वमुपहन्ति, विष्टब्धजरांगच्छति वातमूत्रपुरीपाण्यवगृह्णाति, कर्पयति, ग्लापयति, तर्पयति, स्तम्भयति, खरविषदरूक्षत्वात्पक्षवधग्रहापतानकातिप्रभतीश्चवातविकारानुपजनयतीति ॥६९॥ इन गुणवाला होनेपर भी कषायरस अत्यन्त व्यवहार किये जानेसे मुखको मुखानहि, हृदयको पाडन फरताहे, पदमें अफारा करताहै, वाणीको जकडताहे, स्रोताको बन्द करताह, शरीरको काला बनाताह, पुरुषत्वको नष्ट करताह, बुढापेको शीघ्र लाताद, वात, मूत्र और मलको वांधता है,शरीरको कृश करताहै ग्लानि तथा तपाको उत्पन्न करता है एवंम सर विषद तथा रूक्ष स्वभाववाला होनेसे पक्षाघात, मनुस्तम्भ, नापतानक और अदिति आदि वायके रोगांको उत्पन्न करता