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(३०४) चरकसंहिता-भा० टी० ॥ उष्णवीर्य नहीं किन्तु शीतवीर्य होताहै। और आक, अगर, गिलोय तिक्तरस होने पर भी उष्णवीर्य कहे जाते हैं ॥ ७ ॥
रसोंमें प्रधानता। किञ्चिदम्लंहिसंग्राहिकिञ्चिदम्लभिनत्तिच । यथाकपित्थंसंग्राहिभेदिचामलकंतथा। पिप्पलीनागरंवृष्यंकटुचावृष्यमुच्यते ॥ ७६ ॥ कषायःस्तम्भनःशीतःसोऽभयात्वन्यथामता । तस्माद्रसोपदेशेननसक्द्रव्यमादिशेत् ॥ ७७ ॥दृष्टेतुल्यरसे - प्येवंद्रव्येद्रव्येगुणान्तरम् । रौक्ष्यात्कषायोरुक्षाणामुत्तमोमध्यमः कटुः ॥७८ ॥ तिक्तोऽवरस्तथोष्णानामुष्णत्वाल्लवणः परः। मध्योऽम्लःकटुकश्चान्त्यःस्निग्धानांमधुरःपरः। मध्योऽम्लोलवणश्चान्त्यारस स्नेहान्निरुच्यते ॥ ७९ ॥ कोई अम्लरस संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला होता है और कोई अम्लरस मलको भेदन करनेवाला ( दस्त लानेवाला) होता है जैसे कपित्यका फल संग्राही अर्थात् मलको बांधनेवाला है और आमलाका फल भेदनकर्ता होताहै । कटुरसप्रायः वृष्य नहीं होता परन्तु पीपल, सोंठ आदि कटु होनेपर भी वृष्य होते हैं । इसी प्रकार कषायरस मलको रोकनेवाला और शीतल होताहै परन्तु हरड कषायरस होनेपर भी दस्तावर और उष्ण है । इसीलिये रसमात्रके गुणसे ही द्रव्योंका गुण नहीं करना चाहिये क्योंकि एकसे रसवाले द्रव्योंमें भी दो प्रकारके गुण पायें जाते हैं। कषायरस सब प्रकारके रूक्ष रसोंमें प्रधान होता है । कटुरस मध्यम है और तिक्तरस रूक्षतामें कनिष्ठ होताहै एवम् सव प्रकारके उष्णतामें लवण रस प्रधान है । अम्ल रस मध्यम है । कटु रस कनिष्ठ है । स्निग्धविशिष्ट रसोम मधुर रस प्रधान है ।अम्ल रस मध्यम है।लवण रस कनिष्ठ होताहै।।७६॥७७॥७८॥७९॥
मध्यःकृष्टावराःशैत्यात्कषायस्वादुतिक्तकाःतिक्तात्कषायोमधुरःशीताच्छीततरःपरः । स्वादुर्गुरुत्वादधिक कषायाल्लवणोऽवरः॥ ८०॥ . इसी प्रकार शीतलतामें मीठा रस प्रधान है और कषाय रस मध्यम है तथा कषाय और तिक्त रस कनिष्ठ है जैसे तिक्तसे कषायसे मधुर शीतलताके गुणमें श्रेष्ठ, माने जाते हैं। और गुरुतामें मधुररस प्रधान है, कषाय मध्यम है और लवण रस. कोनष्ठ होता है ॥८०॥ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ' '