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सूत्रस्थान - अ० २६.
(३०१ ) चरपरा रस - मुखको शुद्ध करता है | अग्निको दीप्त करता है । भोजनको शोषण. करता है | नासिकाका स्त्राव करता है। आंखोंसे पानी निकालता है । इन्द्रियोंको स्फुट करताहै। अलसक, शोथ, उदर्द, अभिष्यंद, स्नेह, स्वेद्, क्लेद और मल इन सबकों नष्ट करता है । अन्न रुचि प्रगट करता है । खाज, व्रण और कृमियोंका नाश करता है | मांसको लेखन करता है । रुधिरके जमावको नष्ट करता है । विबन्धका छेदन करता है । स्रोतोंको खोलता है । कफको नष्ट करता है एवम् लघु, उष्ण और रूक्ष गुणसे युक्त है ॥ ६४ ॥
सएवंगुणोऽप्येकएवात्यर्थमुपयुज्यमानाविपाकप्रभावात् पौंस्त्वमुपहन्ति, रसवीर्य्यप्रभावान्मोहयतिग्लापयतिसादयति कर्षयति, मूर्च्छयतिनमयतितमयतिभ्रमयतिकण्ठंपरिदहतिशरीरता - पमुपजनयतिबलं क्षिणोतितृष्णांजनयतिवाय्वग्निबाहुल्यादूममददवथुकम्पतोदभेदैश्चरणभुजपार्श्वपृष्ठप्रभृतिषुमारुतजा - न्विकारानुपजनयति ॥ ६५ ॥
इन गुणोंवाला होनेपर भी चरपरे रसको अधिक सेवन करने से तीक्ष्ण रसका तीक्ष्ण विपाक होनेसे पुरुषत्व नष्ट होताहै । रस और वीर्यके प्रभावसे मोह करता है, ग्लानि करता है, अवसाद करता है, कृशतां करता है, मूर्च्छा करता है, शरीरको नमन करता है, अन्धकारको प्रकट करता है, भ्रम, कण्ठमें जलन, शरीरमें गर्मी उत्पन्न करता है । बलको क्षय करता है। तृषाको प्रकट करता है एवम् वायु और अभि-गुण विशिष्ट होनेसे भ्रम, मद, अतिदाह, कम्प· तोदको और भेदको उत्पन्न करता है । भुजा, पार्श्व और पीठ आदि स्थानोंमें वायुके विकारोंको उत्पन्न करता है ॥ ६५ ॥
तिक्तोरसः स्वयमरोचिष्णुररोच कन्नो विषघ्नः कृमिघ्नोमूर्च्छादाहकण्डूकुष्ठतृष्णाप्रशमनस्त्वङ्मांसयोः स्थिरीकरणोज्वरन्नादीपनः पाचनः स्तन्यशोधनालेखनःक्के दमेदोवसामज्जा लसिकापूयस्वेदमूत्रपुरीषपित्तश्लष्मोपशोषणोरुक्षशीतोलघुश्च ॥ ६६ ॥
तिक्तरस - स्वयम् रुचिके योग्य नहीं है परन्तु इसके सेवन करनेके उपरान्त अन्नपर रुचि बढती है। यह रस कृमियोंको नष्ट करता है, विषको नष्ट करता है । मूर्च्छा, दाह, कण्डु, कुष्ट और तृषाको शान्त करता है। त्वचा और मांसको स्थिर करता है, ज्वरको नष्ट करता है, दीपन है, पाचन है, स्तनोंके दूधकों शुद्ध करता है,