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(२८८) चरकसंहिता-मा० टी०। निमिश्चराजावैदेहोबडिशश्चमहामतिः । काङ्कायनश्चबाह्रीको बाह्रीकभिषजांवरः ॥३॥ एतेश्रुतवयोवृद्धाजितात्मानोमहर्षयः। वनेचैत्ररथेरम्येसमीयुर्विजिहीर्षवः ॥ ४ ॥तेषांतत्रोपविष्टानामियमर्थवतीकथा । बभूवार्थविदांसम्यक्रसाहारविनिश्चये॥५॥ एक समय आत्रेय भद्रकाप्य शाकुन्तेय, पूर्णाक्ष, मौद्गल्प, हिरण्याक्ष, कौशिक,
मागल्य, हरण्या महात्मा कुमारशिरा भरद्वाज, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीमान् राजर्षि वार्योंविद, निमि. राजर्षि वैदेह, विशालबुद्धि बडिश, कांकायन, वाह्नीक ( वैद्योंमें श्रेष्ठ ) यह सम्पूर्ण विद्यामें और आयुमें वृद्ध, जितेन्द्रिय, महात्मालोग,रमणकरनेयोग्य चैत्र. रथ प्रभृति स्थानों में विचरण करते हुए एक स्थानमें एकत्रित हुए। उस समय इन ऋपियोंकी सभामें रसाहारसम्बन्धी सिद्धान्त निश्चय करनेके लिये आन्दोलन आरंभ हुआ ॥१॥२॥ ३ ॥ ४॥५॥ . .,
एकएवरसइत्युवाचभद्रकाप्योयंपञ्चानामिन्द्रियार्थानामन्यतमं जिह्वावैषयिकंभावमाचक्षतेकुशलाः।सपुनरुदकादनन्य इति॥६॥
प्रथम भद्रकाप्य बोले कि रस १ एक प्रकारका होताहै । और यह रस सब प्रकारके इन्द्रियार्थोंमें जिह्वाग्राह्य है और जिह्वेन्द्रिय जलीय है इसलिये रस जलके सिवाय और कोई वस्तु नहीं ॥ ६ ॥
द्वौरसावितिशाकुन्तेयोब्राह्मणश्छेदनीयश्चोपशमनायश्चति॥७॥ यह सुनकर शाकुन्तेय ब्राह्मण कहनेलगे कि रस दो प्रकारका होताहै। १ छेदनकर्ता २ उपशमनकर्ता ॥ ७॥
त्रयोरसाइतिपूर्णाक्षःमौद्गल्यश्छेदनीयोपशमनीयो
साधारणश्च ॥८॥ पूर्णाक्ष मौद्गल्य कहनेलगे कि रस तीन प्रकारका होताहै. १ छेदन-( शोधन ) कर्ता २ शमनकर्ता ३ साधारण ॥ ८॥
चत्वारोरसाइतिहिरण्याक्षःकौशिकः स्वादुर्हितश्चस्वादुरहितश्चअस्वादुरहितश्चास्वादुर्हितश्चेति ॥ ९ ॥ हिरण्यकौशिक कहनेलगे कि हितकर स्वादु, अहितकर स्वादु, अहितकर अस्वादु और हितकर अस्वादु इन भेदोंसे ४ प्रकारका रस है ॥९॥