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सूत्रस्थान - अ० २६.
( २९५ )
रिमाणमथापिच ॥ ४४ ॥ संस्कारोऽभ्यासइत्येते गुणाज्ञेयाः परादयः । सिद्धयुपायश्चिकित्सायालक्षणैस्तान्प्रवक्ष्यते ॥४५॥
परत्व, अपरत्व, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथक्त्व, परिमाण, संस्कार और अभ्यास इन सबका यथोचित ज्ञान होने विना चिकित्साकी सिद्धि नहीं होती इसलिये अब इनके लक्षणोंको कहते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
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देशकालवयोमानपाकवीर्य्यरसादिषु परापरत्वेयुक्तिस्तुयोजनायाचयुज्यते ॥ ४६ ॥
देश, काल, अवस्था, मान, पात्र, वीर्य, रस आदिकोंमें प्रधानको परत्व और अप्रधानको अपरत्व समझना चाहिये। इन देश, कालादिकोंका परत्वापरत्व विचार जो प्रयोग किया जाता है उसको युक्ति कहते हैं ॥ ४६ ॥
संख्यास्याद्गुणितंयोगः सहसंयोग उच्यते । . • द्रव्याणांद्वन्द्वसर्वैककर्मजेोनित्यएवच ॥ ४७ ॥
द्रव्यकी गणनाको संख्या कहते हैं उसके विधिपूर्वक मिलानको संयोग कहते हैं । वह संयोग तीन प्रकारका होता है । १ द्वन्द्वकर्मज, २ सर्वकर्मज ३ एककर्मज । वह संयोग अनित्य होता है ॥ ४७ ॥
विभागस्तुविभक्तिस्तुवियेागो भागशोग्रहः ।
पृथक्त्वंस्यादसंयोगोवैलक्षण्यमनेकता ॥ ४८ ॥
विभागशब्दका अर्थ हिस्से करना अर्थात् भागपूर्वक वियोग करना है पृथक्त्व. एक से दूसरे में पृथक्ता प्रतिपादन करना है । जैसे- गौसे भैंस पृथक होती है । घटसे पट पृथक होता है । इस प्रकार एक जगह संयोग होनेपर भी जो गुणविशेषसे अलगही प्रतीत हो उसको पृथक्त्व कहते हैं ॥ ४८ ॥
परिमाणंपुनर्मान संस्कारः करणंमतम् ।
भावाभ्यसनमभ्यासःशीलनं सततक्रिया ॥ ४९ ॥
परिमाण - मान ( तोल) के विधानका नाम है । द्रव्यादिकों का संयोग करनेसे जो विशेष रूप प्रगट होता है उसको संस्कार कहतेहैं । सत्क्रियाका निरन्तर सेवन करना अभ्यास कहा जाता है ॥ ४९ ॥
१ परत्वं प्रधानत्वम्, अपरत्वम् - अप्रधानत्वमिति चक्रपाणिः ।
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