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चरकसंहिता - भा० टी० ।
फाशीनरेशवामकका वाक्य । अथकाशिपतिर्वाक्यंवा मकोऽर्थवदन्तरा ! व्याजहारर्षिसमितिमभिसृत्याभिवाद्यच ॥ ३॥ किन्नुस्यात्पुरुषोयज्जस्तज्जास्तस्यामयाःस्मृताः । नवेत्युक्तेनरेन्द्रेणप्रोवाचर्षीन्पुनर्वसुः ॥ ४ ॥ सर्वएवामितज्ञानविज्ञानच्छिन्नसंशयाः । भवन्तश्छेत्तुमर्हन्ति काशिराजस्यसंशयम् ॥ ५ ॥
उनमेंसे वामक नामके ऋषि उस सभामें बैठे हुए ऋषियोंमें अग्रणी होकर कहनें लगे कि हे भगवन् ! जिससे यह पंचभूतात्मा पुरुष उत्पन्न हुआ है क्या रोग भी उसीसे प्रगट हुए हैं ? वामकके इस प्रश्नको सुनकर भगवान् पुनर्वसुजी सब ऋषियांको सम्बोधन कर कहने लगे कि आप सब अपार ज्ञानवाले और विज्ञानबलसे संशयरहित हो इसलिये आपही सब लोग काशीराज महर्षि वामकके संदेहको दूर कीजिये ॥ ३ ॥ ४ ॥ ५॥
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मौका मत |
पारीक्षिस्तत्परीक्ष्याग्रे मौद्गल्योवाक्यमब्रवीत् । आत्मजः पुरुषोरोगाश्चात्मजाःकारणंहिसः ॥ ६ ॥ सचिनोत्युपभुङ्क्ते चकर्म्म कर्म्मफलानिच । नहघृतेचेतनाधातोः प्रवृत्तिः सुखदुःखयोः ॥७॥ यह सुनकर परीक्षीके पुत्र महर्षि मौहल वोले कि आत्मासे पुरुष और सब रोग प्रगट हुएहैं इसलिये आत्माही इस जगह कारण है क्योंकि आत्मा कर्मसंचय और कर्मका फल भोगने वाला है उस चैतन्य आत्मा बिना किसी प्रकार भी सुख ओर दुःखकी प्रवृत्ति नहीं हो सकंती ॥ ६ ॥ ७ ॥ शरलोमाका मत । शरलोमातुनेत्याहनह्यात्मात्मानमात्मना।योजयेद्वद्याधिभिर्दुःखेर्दुःखद्वेषी कदाचन ॥ ८ ॥ रजस्तमाभ्यांतुमनःपरीतंसत्त्वसंज्ञकम् । शरीरस्यसमुत्पत्तौ विकाराणाञ्चकारणम् ॥ ९ ॥ यह सुनकर शरलोमा ऋषि कहनेलगे कि यह आपका कहना ठीक नहीं है क्यों कि आत्मा तो स्वभाव से ही दुःखका द्वेषी हैं, वह तो कभी भी अपनेको व्याधियोंके दुःखमें दुःखित होना नहीं चाहता । हमारी समझमें रज और तमके अधीन होकर यह सतन मन जो है यही शरीर और रोगोंको उत्पन्न करनेका कारण है ॥ ८ ॥ ९ ॥
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