________________
सूत्रस्थान-अ० २५. रक्तका निकालना, अच्छे शास्त्रोंका सुनना श्रेष्ठमहात्माओंका सेवन करना इनसे भी मनुष्योंके मद और मूरोिगकी शान्ति होतीहै ॥ ५६ ॥ . .
तत्रश्लोको। विशुद्धञ्चाविशुद्धंचशोणितंतस्यहेतवः। रक्तप्रदोषजारोगास्ते-. . पुरोगेषुचौषधम् ॥ ५७ ॥ मदमूछीयसंन्यासहेतुलक्षणभेषजम् । विधिशोणितकेऽध्यायेसर्वमेतत्प्रकाशितम् ॥ ५८ ॥
इति योजनाचतुष्केविधिशोणिताध्यायः समाप्तः। . इस प्रकार इस शोणितीयाध्यापमें शुद्ध और अशुद्ध रक्तके लक्षण और उनके कारण तथा रक्तजन्य रोग और उनके उपाय एवम् मद, मूर्छा, संन्यासके हेतु, और लक्षण तया चिकित्सा भगवान् पुनर्वसुजीने वर्णन की है ॥ ५७ ॥ ५८॥ इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य० भाषाटकिायां योजनाचतुष्के
विधिशोणिताभ्यायश्चताशः ॥ २४ ॥
औरण तथा रक्तजन्यशोणितीयाध्याय शोणिताच्या
पंचविंशोऽध्यायः।
अथातोयजःपुरुषीयमध्यायंव्याख्यास्यामः इतिहरमाहभग: वानात्रेयः। अब हम यजापुरुषीयनामक अध्यायकी व्याख्या करतेहैं । ऐसा भगवान आत्रेयजी कहनेलगे।
ऋषियोंका आन्दोलन । पुराप्रत्यक्षवणिंभगवन्तंपुनर्वसुम् । समेतानांमहर्षीणांप्रा. दुरासीदियंकथा ॥१॥ आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानायोऽयंपुरुषसंज्ञकः ।राशिरस्यामयानाञ्चप्रागुत्पत्तिविनिश्चये ॥२॥ पहिले एक समय भूत, भविष्य, वर्तमानके जाननेवाले भगवान् पुनर्वसंजीके पास बैठेहुए महर्षि लोग इस प्रकारका आन्दोलन करनेलगे कि आत्मा, मन, इन्द्रिय और इन्द्रियोंके विषय इन सवका. समुदायरूप यह पुरुष है सों इस शरीरमें पहिले किस प्रकार रोगोंकी उत्पत्ति होतीहै इस विषयमें कुछ निश्चय करना चाहिये ॥१॥२॥..