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सूत्रस्थान-अ० २५.
(२७३) कहें कि स्वभावसे ही जन्मादिकोंकी सिद्धि होती है या असिद्धि होतीहै यह हम नहीं देखते । क्योंकि रचनेवाला संकल्पविशिष्ट प्रजापतिही पुरुष और उसके सुख दुःखका कारण है। यदि ऐसा न होता तो विना किसीको कर्जा माने स्वभावाधीन जगत् नियमबद्ध नहीं होता । जगत् में नियम है, नियम नियंताके अधीन होताहै सो वह नियंता प्रजापति जगत्का कर्ता ही पुरुषके जन्म और सुख दुःखोंका कारण है ॥ २० ॥ २१ ॥
भिक्षुआत्रेयका मत।। तथतिभिक्षुरात्रेयोनह्यपत्यंप्रजापतिः । प्रजाहितैषीसततंदुःखैर्युज्यानसाधुवत् ॥२२॥ कालज्ञस्त्वेवपुरुषःकालजास्तस्य चामयाः। जगत्कालवशंसर्वकालःसर्वत्रकारणम् ॥ २३ ॥ यह सुनकर भिक्षु आत्रेय कहने लगे कि ऐसा नहीं होता क्योंकि प्रजाका हित चाहनेवाला और उत्पन्न करनेवाला प्रजापति ऐसा द्वेषी नहीं होसकता जो अपनी रचीहुई प्रजाको दुःखित करे इसलिये यह कहना चाहिये कि पुरुष कालसें उत्पन्न
होताहै एवम् व्याधियां भी कालहीसे उत्पन्न होती हैं । और सम्पूर्ण जगत् कालके ' ही अधीन है सो हमारे मतसे काल ही सवका कारण है ॥ २२ ॥ २३ ॥
पुनर्वसुका वचन । तथर्षीणांविवदतामुवाचेदंपुनर्वसुः । मैवंवोचततत्त्वंहिदुष्प्रापंपक्षसंश्रयात् ॥ २४ ॥ वादासप्रतिवादान्हवदन्तोनिश्चितानिच। पक्षान्तनैवगच्छन्तितिलपीडकवद्गतौ ॥२५॥मुक्त्वैनंवादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम् । नाविधतेतमःस्कन्धे ज्ञेयेज्ञानप्रवर्त्तते ॥ २६ ॥ येषामेवहिभावानांसम्पत्सञ्जनयेनरम् । तेषामेवविपद्वयाधीन्विविधान्समुदीरयेत् ॥ २७ ॥ इस प्रकार ऋषियों के विवादको सुनकर पुनर्वसु आत्रेयनी कहनेलगे,इस प्रकार झगडा क्यों करतेहो ? क्योंकि पक्षपात करनेसे तत्वका निश्चय नहीं होसकता।जब एक प्रश्न करताहै दूसरा उत्तर देताहै तीसरा अपना और ही पक्ष लेलेताहै ऐसा होनेसे वाद प्रतिवाद वढता चला जाताहै और जैसे तैलके कोल्हूकी लकडी चारों तरफ घूमघामकर अपनी सीमासे बाहर नहीं जासकती ऐसे ही पक्षपातपूर्वक झगडोंसे भी यथार्थका निश्चय नहीं होता जब तक अंधकार दूर नहीं होता तब तक जाननेयोग्य पदार्थ पर दृष्टि नहीं पहुंचसकती । यथार्थ बात तो यह है कि जिन भावोंसे
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