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सूत्रस्थान-अ० २१.
(२४३) पोदकारसाः। संस्कृतानिचमांसानिदधिसर्पिःपयांसिच ॥ ॥ ३० ॥ इक्षवःशालयोमांसागोधूमागुडवैकृतम् । वस्तयः स्निग्धमधुरास्तैलाभ्यङ्गश्चसर्वदा ॥ ३१ ॥ स्निग्धमुद्वर्तनं स्नानंगन्धमाल्यनिषेत्रणम् । शुक्लोवासोयथाकालंदोषाणामवसेचनम् ॥ ३२ ॥ रसायनानांवृष्याणांयोगानामुपसेवनम् । हत्त्वातिकार्यमादत्तेतृणामुपचयंपरम् ॥ ३३॥ अब कृशताके नाश करनेवाले यत्नोंको कहतहैं । जैसे इच्छापूर्वक सोना, हर्ष, सुन्दर नरम शय्या, संतोष, शांति, चिन्ता न करना, स्त्री संग न करना,व्यायाम न करना, इष्टवस्तुको प्राप्त होना, नवीन अन्न, नवीन मद्य, ग्रामसंचारी जीव, अनूप संचारी जीव, जलचर जीव, इनका मांसरस, उत्तम बनाया हुआ मांस, दधि,घृत, दूध, ईख, शालीचावल, उडद, गेंहू, मिठाई, चिकने और मीठे पदार्थोंकी वस्ति, नित्यतैलमर्दन, चिकने उद्वर्तन, स्नान, चन्दनका लेपन, सुगंधित फूलमाला, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, समय पर शरीरका शोधन करना,रसायन तथा वृष्य योगोंका सेवन करना इन सब द्रव्योंका उपयोग मनुष्यकी कृशता (दुबलापन) को दूर करके परमपुष्टिको देनेवाला है ।। २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२॥ ३३ ॥
अचिन्तनाच्चकार्याणांध्रुवसन्तर्पणेनच । स्वप्नप्रसङ्गाच्चनरो . वराहइदपुष्यति ॥३४॥ एवं किसी कार्यकी भी चिन्ता न करनेसे तथा सदैव सतर्पण द्रव्योंके सेवन करसे और मस्त पडे रहनेसे मनुष्यका शरीर सूकरके समान पुष्ट होजाताहै ॥३४॥
निद्राका कारण और उसके उचितानुचित प्रकार । यदातुमनलिक्लान्तेकमात्मानःकुमान्विताविषयेभ्योनिवर्तन्तदास्वपितिमानवः ॥३५॥ निद्रायत्तंसुखंदुःखंपुष्टिःकाश्यवलावलम् । वृषताक्लीवताज्ञानमज्ञानंजीवितंनच ॥३६॥
अकालेऽतिप्रसङ्गाच्चनचनिद्रानिषेविता । सुखायुषीपराकुर्य्या. कालरात्रिारीवापरा ॥ ३७ ॥ सैवयुक्तापुनर्युकेनिद्रादेहंसु
खायुषा । पुरुषंयोगिनंसियासत्याबुद्धिरिवागता ॥ ३८॥. .जब मनुष्यके मनमें क्लांति आजातीहै और कर्मेंद्रिये थककर अपने विषयोंते निवृत्त होजातीहैं तब इस मनुष्यको निद्रा आतीहै अर्थात् सो जाताहै ॥३५॥ सुख