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चरकसंहिता-भा० टी०। होना प्रतीत होता और अत्यन्त पसीना आकर फिर होशमें आजाताहै फिर उसको प्यास, संताप लाल पीले नेत्र, दस्त, देहका वर्ण पीला ये लक्षण होतेहैं।॥३५॥३६॥
मेघसङ्काशमाकाशमावृतंवातमाघनैः । पश्यंस्तमःप्रविशति चिराच्चप्रतिबुध्यते ॥ ३७ ॥ गुरुभिःप्रावृतैरङ्गैर्यथैवाणच
र्मणा । सप्रसेकःसहृल्लासोमूर्छायेकफसम्भवे ॥३८॥ कककी मृच्छामें मनुष्य आकाशको वादलोंसे ढकाहुआ और अंधेरी छाई हुई देखते २ अंधकारमें प्रवेश करताहै बहुत देरमें होश आने पर अपने शरीरको गीले वस्त्रसे ठकासा प्रतीत करताहै । मुखसे पानीका बहना, और हल्लास ( जमिच; लाना ) यह लक्षण होतेहैं ॥ ३७॥ ३८॥
सर्वाकांतःसन्निपातादपस्मारइवागतः।
सजन्तुंपातयत्याशुविनावीभत्सचोष्टितैः ॥ ३९ ॥ सन्निपातकी मूमि अपस्मार (मृगी)रोगके समान लक्षण होतेहैं अन्तर केवल इतनाही होताहे कि अपस्मारमं वीभत्स (भयानक) चेष्टा नहीं होती और सन्निपा तको मृच्छमि होतीहै ।। ३९ ।।
दोपपुमदमूच्छायाःहृतवेगेपुदेहिनाम् ।
स्वयमेवोपशाम्यन्तिसन्यासोनौपधविना ॥ ४०॥ मदसे उत्पन्नहुई भूमि दोषांका वेग शान्त होनेपर मूर्छा भी स्वयम् शान्त होना; तीहै । परन्तु संन्यासरोग विना औषधिके कदापि शान्त नहीं होता ॥ ४० ॥
संन्यास रोगका लक्षण । वाग्देहमनसांचेष्टामाक्षिप्यातिबलामलाः। संन्यस्यन्त्यवलं जन्तुप्राणायतनसंश्रिताः ॥४१॥ सनासंन्याससंन्यस्तःकाष्ठभृतोमृतोपमः । प्राणवियुज्यतेशीघ्रमुक्त्वासद्यःफलांकियाम् ॥४२॥ वात, पित्त, कफ अत्यन्त कुपित होनेसे प्राणोंका आश्रय लेते हुए जब देह, मन और वाणीकी क्रियाको नट कर देते तव मनुष्य पृथ्वी पर गिरकर वेहोश पडा हताह । इस गंगको संन्यास रोग कहते हैं । संन्यासरोगमें मनुष्य गिरकर लकडीके समान मगाभा मा पहा रहताह । उस समय यादि शीत्र फल देनेवाली चिकि: रगान की जाय तो यह मनुष्य मृत्युको प्राप्त होजाताह ॥ ११ ॥ ४२ ॥