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चरकसंहिता - भा० टी० ।
मदमूर्छादिके हेतु । यदातुरक्तवाहीनिरससंज्ञावहीनिच । पृथक्पृथक्समस्तावा स्रोतांसिकुपितामलाः ॥ २३ ॥ मलिनाहारशीलस्यरजोमोहावृतात्मनः । प्रतिहत्यावतिष्ठन्तेयाजन्ते व्याधयस्तदा ॥ २४ ॥ मदमूर्च्छाय संन्यासास्तेषां विद्याद्विचक्षणः । यथोत्तरंबलाधिक्यं हेतुलिङ्गो शान्तिषु ॥ २५ ॥
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जो मनुष्य सडेसे दूषित भोजनको करता है उसके शरीर में वात आदि दोष कुपित होकर अलग २ अथवा मिलकर रक्तवाहिनी नसोंको दूषित करके उनमें रहते हैं ॥ २३ ॥ तब उस दूषित आहारके करनेवाले मनुष्यके शरीरमें अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २४ ॥ जैसे-उन्माद, मूर्छा, संन्यास ( बेहोशी ) इत्यादि इस लिये बुद्धिमान वैद्यको हेतु, लक्षण, उपशय इनको विचारकर चिकित्सा करना चाहिये । रक्तमें दोषके वलवान् होनेसे मद, मूर्च्छा, संन्यास यह तीनों प्रथमकी अपेक्षा दूसरा, दूसरेकी अपेक्षा तीसरा घोरतर होता है । दूसरी बात यह है कि बढे - हुए दोषांसे दूषित हुए रक्तविकारोंको कारण और लक्षणोंसे उपशम अर्थात् उपाय द्वारा शान्त करना भारी वात है ॥ २५ ॥
दुर्वलञ्चेतसः स्थानंयदावायुः प्रपद्यते । मनोविक्षोभयञ्जन्तोः संज्ञां संमोहयेत्तदा ॥ २६ ॥ पित्तमेवं कफश्चैवं मनोविक्षोभयनृणाम् । संज्ञांनयत्याकुलतांविशेषश्चात्रवक्ष्यते ॥ २७ ॥
जब मनुष्यके दुर्वल चित्तमें कुपित होकर वायु प्रवेश करता है उस समय उस मनुष्य के मनको चञ्चल करके ज्ञानको विगाड देता है || २६ || इसी प्रकार कुपित हुआ पित्त और कफ मनुष्यों के मनको चञ्चल करता हुआ ज्ञानको नष्ट कर देता है । उसीको विशेष रूप से वर्णन करतेहैं ॥ २७ ॥
वातादिकृत उन्मादका लक्षण |
सक्तानल्वद्रुताभापंचलस्खलित चेष्टितम् । विद्याद्वातमदाविष्टंरूक्षश्यावारुणाकृतिम् ॥ २८ ॥
वातजनित मदरोग में मनुष्य जल्दी २ और अधिक बकवाद करताहै । उसका स्वभाव चंचल होजाता एवम् चेष्टा स्खलित होजाती हैं तथा आकृति रूखी, काली और उसी होती है | ऐसे मनुष्यको वायुके मदसे दूषित जानना ॥ २८ ॥