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सूत्रस्थान-अ० २१.
(२४७) अध्यायका उपसंहार। तमोभवाश्लेष्मसमुद्भवाचमनःशरीरश्रमसम्भवाच । आगन्तुकीव्याध्यनुवर्तिनीचरात्रिस्वभावप्रभवाचनिद्रा॥ ५८ ॥ रात्रिस्वभावप्रभवामतायातांभूतधात्रींप्रवदान्तनिद्राम्। तमोभवामाहुरघस्यमूलंशेषपुनर्व्याधिषुनिर्दिशन्ति ॥ ५९॥ निद्रा तमोगुणसे उत्पन्न होतीहै तथा कफसे उत्पन्न होतीहै एवं मन और शरीरके परिश्रमसे निद्रा आतीहै तथा विष आदि सेवनसे अथवा भूतादि आवेशसे आगन्तुक निद्रा उत्पन्न होतीहै और किसी किसी रागमें भी निद्रा उत्पन्न होताहै तथा रात्रिमें स्वाभाविक निद्रा उत्पन्न होतीहै, निद्राको भूतधात्री भी कहतेहैं, तमोभव निद्रा पापका मूल है और बाकी निद्राको व्याधिके प्रति निदर्शन कहतेहैं अर्थात् स्वाभाविक निद्रा तो मनुष्यों के लिये प्राणरक्षक है और तमोभव पापका कारण है, अन्य निद्रा रोगरूप है ॥ ५८॥५९॥
तत्र श्लोकाः। निन्दिताःपुरुषास्तेषांयौविशेषेणनिन्दितौ । वक्ष्यामिकारणंदोपास्तयोनिन्दितभेषजम् ॥ ६० ॥ येभ्योयदाहितानिद्रायेायश्चाप्यहितायदा। अतिनिद्रानिद्रयोश्चभेषजयद्भवाचसा ॥१॥ यायायथाप्रभावाचनिद्रातत्सर्वमत्रिजः। अष्टौनिन्दितसंख्यातेव्याजहारपुनर्वसुः ॥ ६२ ॥
इति योजनाचतुष्कष्टौनिन्दितीयोनामैकविंशोऽध्यायः। अव अध्यायके उपसंहारमें यह श्लोक हैं इस अष्टौनिन्दितीय अध्यायमें आठ. प्रकारके पुरुष निंदनीय और दो प्रकारके विशेष निंदनीय और निंदित होनेका कारण-स्थूल और कृशके दोष तथा औषधि, निद्रा हिताहित और जिसको जिस. समय हितकर है, अतिनिद्रा,अनिद्रा, निद्राके उत्पन्न होनेके कारण, जो जो निद्रा जिस जिस स्वभावको है यह सब भगवान् पुनर्वसुजीने कथन किया है ।। ६० ।। ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसादवैद्य भाषाटीकायामष्टौनिन्दितीयो .
नामकविशोऽध्यायः ॥ २१ ॥