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सूत्रस्थान - अ० २१. दिवानिद्राका निषेध | ग्रीष्मवर्ज्येषु कालेषुदिवास्वप्नात् प्रकुप्यतः । श्लेष्मपित्तेदिवास्वप्नस्तस्मात्तेषुनशस्यते ॥ ४४ ॥ मेदस्विनः स्नेहनित्याः इलेष्मलाः श्लेष्म रोगिणः । दूषीविषार्त्तावदिवानशयी रन्कदा
चन ॥ ४५ ॥
गर्मियोंके सिवाय अन्यऋतुओं में दिनके सोनेसे कफ और पित्त कुपित होते हैं इस लिये अन्यऋतुओं में दिनका सोना अनुचित कहाँ है ॥ ४४ ॥ जो मनुष्य अधिक मेदवाले हैं अथवा स्नेहको सेवन करनेवाले एवं कफप्रधान और कफके रोगवाले तथा दृषीविषसे पीडित हों उन मनुष्योंको किसी कालमें भी दिनमें सोना नहीं चाहिये ॥ ४५ ॥
दिवानिद्राके उपद्रव ।
हलीमकः शिरःशूलस्तैमित्यं गुरुगात्रता । अङ्गमर्दोऽग्निनाशश्च प्रलेपोहृदयस्यच ॥ ४६ ॥ शोथारोचकहृल्लासपीनसार्द्धावभेदकाः । कोठाश्चपिडकाः कंस्तन्द्राका सोगलामयाः ॥४७॥ स्मृतिबुद्धिप्रमोहाश्च संरोधः स्रोतसांज्वरः । इन्द्रियाणामसाम
विषवेगप्रवर्तनम् ॥ ४८ ॥ भवेन्नृणांदिवास्वप्नस्याहितस्य निषेवणात्। तस्माद्विताहितं खप्नं बुद्धा खप्यात्सुखंबुधः ॥ ४९ ॥ वे समय अथवा बहुत सोनेसे मनुष्योंके शरीर में हलीमक, मस्तकपीडा, स्तैमित्य, भारीपन, अंगमर्द, मंदाग्नि, हृदयका लिपासा होना, शोथ, अरुचि, हल्लास, पीनस, अर्धावभेदक, कोठरोग, पिडका, खुजली, तंद्रा, कास, गलरोग, स्मृति और बुद्धिका नाश, स्रोतोंका अवरोध, ज्वर, इंद्रियोंमें निर्बलता, यदि दूषित विष हो तो उसके वेगको प्रवृत्ति इतने उपद्रव होते हैं इसलिये बुद्धिमान मनुष्यको उचित है कि वह सोने ( निद्रा ) के विषय में उचितानुचित एवं हिताहित विचारकर शयन करे ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ ४९ ॥
रात्रौजागरणरूक्षस्निग्धमस्वपनंदिवा |
अरुक्षमनभिष्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम् ॥ ५० ॥
रात्रि को जागनेसे रूक्षता उत्पन्न होती है, दिनमें सोनेसे स्निग्धता उत्पन्न होती है एवं आसनपर बैठे बैठे ऊंघनेसे न तो रूक्षता ही होती है और न स्निग्धता प्रकट होती है ( परन्तु उदर वढ जाता है ) ॥ ५० ॥