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सूत्रस्थान-अ० २३. (२९९) निच । स्नानानिवस्तयोऽभ्यङ्गास्तर्पणास्तर्पणाश्चये ॥ ३०॥ ज्वरकासप्रसक्तानांकशानांमूत्रकृच्छ्रिणाम् । तृष्यतामूर्द्धवातानांहितंवक्ष्यामितर्पणम् ॥३१॥ इन लंघनसे उत्पन्न हुए रोगोंमें सतर्पणके जाननेवाले वैद्योंको उचित रीतिपर हलके सतर्पणसे अभ्यास कगकर सामर्थ्यानुसार संतर्पणकी मात्राको बढाना चाहिये । जो मनुष्य अवतर्पण ( लंबन ) से शीघ्र क्षीण हुआहो वह सतर्पणके सेवनसे शीध्रही पुष्ट होजाताहै और जो मनुष्य बहुत दिनका क्षीण है वह कुछ काल पर्यन्त सतर्पणका अभ्यास करने विना पुष्ट नहीं होसकता ॥२७॥२८॥ जो मनुष्य बहुत दिनसे क्षीण होरहा हो उसके देह, अग्नि, वल और दोषको विचारकर तथा औषध, मात्रा, और कालका विचार करते हुए अल्प २ ( थोडी २) मात्रासे संतर्पणका अभ्यास करना चाहिये ॥ २९ ॥ बहुत रोजसे क्षीण हुएं मनुष्यके लिये मांसरस, दूध, घृत, स्नान, वस्तिकर्म और अभ्यंग एवम् अनेक प्रकारके तर्पण योग्य रीति पर उपयोग करना चाहिये ॥ ३० ॥ जो मनुष्य ज्वर
और खांसीसे पीडित हो, कृश हो, मूत्रकृच्छ्र रोगवाला, तृषायुक्त एवम् ऊई. वातवाला हो ऐसे रोगियोंके लिये हितकारी संतर्पणोंका कथन करतहैं ॥ ३१ ॥
पुष्टिकर्ता मन्थ । शर्करापिप्पलीतलघवक्षौद्रसमांशकैः।
सक्तुद्विगुणितोवृष्यस्तेषांमन्थःप्रशस्यते ॥ ३२ ॥ ___ खांड, पपिल, तैल, घृत, मधु इनको समान भाग लेकर इनमें उनके दूने सत्तू मिलावे यह मंथ सब प्रकारके क्षीण मनुष्योंके लिये परम हितकारी है ॥ ३२॥
विण्मूत्रानुलोमी तर्पण। सरुवोमदिराक्षौद्रंशर्कराचेतितर्पणम् ।
पिवेन्मारुतविण्मूत्रकफपित्तानुलोमनम् ॥३३॥ __ सत्तू, मद्य, शहद, खांड इनका तर्पण सेवन करनेसे वायु, मल, मूत्र और कफ जया पित्तका अनुलोमन होताहै ॥ ३३॥
मूत्रकृच्छ्रादिनाशक तर्पण । - फाणितंसक्तवःसर्पिर्दधिमण्डोऽम्लकाञ्जिकम्।
तर्पणमूत्रकृच्छ्न मुदावर्त्तहरंपिबेत् ॥ ३४ ॥ .फाणित, सत्तू, घृत, दही,मंड, खट्टी कांजी इनका तर्पण पीनेसे मूत्रकृच्छू और उदावर्तका नाश होताहै ॥ ३४ ॥