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(२४४) चरकसंहिता-भा० टी० और दुःख, पुष्टता और कृशता, वल तथा निर्बलता, वृषता तथा क्लीवता, ज्ञान और अज्ञान एवं जीवन और मरण यह सब निद्राके अधीन है ॥ ३६ ॥वे समय सोनेसे बहुत ज्यादा सोनेसे,एवं एकसाथ ही निद्राका त्याग देनसे. मनुष्योंका सुख और आयु रात्रिके प्रातःकालके समान किंचित् शेष रहजाताहै, तात्पर्य यह कि जैसे दो घडी रात वाकी रहनेपर रात्रि नष्टप्राय ही होतीहै ऐसेही निद्राकी विपरीततासे मनुष्यका सुख और आयु भी नष्टप्राय समझना चाहिये ॥ ३७ ॥ और वही निद्रा याद युक्तिपूर्वक ठीक सेवन कीजावे तो जैसे योगी पुरुष सिद्धिको प्राप्त होकर सत्यबुद्धिका लाभ करलेताहै उसी प्रकार रचित रीतिसे निद्रासेवन करनेवाला मनुष्य सुख और दीर्वायुको प्राप्त होताहै ॥ ३८ ॥
गीताध्ययनमद्यस्त्रीकर्मभारावकर्षिताः। अजीणिनःक्षताः क्षीणावृद्धावालास्तथाबलाः॥ ३९ ॥ तृष्णातीसारशूलार्ताः श्वासिनःशूलिनःशशाः । पतिताभिहतोन्मत्ताःक्लान्तायानप्रजागरैः ॥४०॥ क्रोधशोकभयक्लान्तादिवास्वप्नोचिताश्चये। सर्वएतेदिवास्वप्नंसेवेरन्सार्वकालिकम् ॥ ४१ ॥ जो मनुष्य गायन, अध्ययन, मद्यपान, स्त्रीसंग, कर्म,भार और मार्गसे यकगये हैं एवं-अजीर्णरोगी, उरक्षतवाला, क्षीण, वृद्ध, बालक, दुर्वल तथा प्यास, अतिसार, शूलसे पीडित, वासरोगी, हिचकीसे ग्रसाहुआ और कृश तथा गिरपडा हुआ एवं जिनके चोट लगीहो,बावला और सवारीसे थकाहुआ,जो रात्रिमें जागाहो, क्रोधी, शोकाकुल, भयातुर, दिनमें सोनेके अभ्यासवाला इन सब मनुष्योंको सव ऋतुओंमें दिनमें भी सोना अनुचित नहीं (इनसे सिवाय अन्य मनुष्योंको दिनमें सोना नहीं चाहिये ) ॥ ३९ ॥ ४० ॥४१॥ . धातुसाम्यात्तथाह्येषांबलञ्चाप्युपजायते ॥ श्लेष्मापुष्यतिचागानिस्थैर्यभवतिचायुषः॥४२॥ श्लेष्माचादानरूक्षाणांवर्द्ध- . मानेचमारुते । रात्रीणांचातिसंक्षेपादिवास्वप्नःप्रशस्यते ॥४३॥ ऊपर कहेहुए मनुष्योंके दिनमें सोनेसे सब धातु साम्यावस्थामें आकर बलकी वृद्धिको प्राप्त होते हैं और श्लेष्मा इनके अंगोंको पुष्ट करताहै जिससे इनके आयुर्मे स्थिरता प्राप्त होती है ॥ ४२ ॥ ग्रीष्मऋतुमें मनुष्योंके शरीर आदानकालके आकर्षणसे रूक्ष होते हैं और वायुका संचय होता है तथा रात्रि बहुत छोटी होती है इसलिये गर्मियोंमें दिनका सोना भी उत्तम कहाहै ॥ ४३ ॥