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( १४२) वरकसंहिता-भा० टी०। ।
अवस्थूल मनुष्यकी चिकित्साका वर्णन करतेहैं । वात और कफनाशक तथा मेदके हरनेवाले अन्न पानोंका सेवन करावे और रूक्ष, गरम, तीक्ष्ण, वस्ति करे। रुक्ष उद्धर्तनांका प्रयोग करावे ॥२१ ॥ तथा गिलोय और भद्रमुस्तकका काय, विफलेका काथ, छाँछ, अरिष्ट, शहद, वायविडंग, सोंठ, जवाखार, शहदके संग उत्तम लोहभस्म, जव, आमलेका चूर्ण इन सवका प्रयोग करना मेदरोगके नए करनेके लिये उत्तम मानहि ॥ २२ ॥ २३ ॥ विल्वादिपञ्चमूलस्यप्रयोगःक्षौद्रसंयुतः। शिलाजतुप्रयोगस्तु सानिमन्थरसाशिला ॥२४॥ प्रसातिकाप्रियंगुश्चश्यामाकायवकायवाः । जूर्णाह्वाःकोद्रवामुद्गाकुलत्थाश्चक्रमर्दकाः ॥२५॥ आटकीनाञ्चवीजानिपटोलामलकैःसह । भोजनार्थप्रयोज्यानिपानञ्चानुमधदकम् ॥ २६॥ अरिष्टांश्चानुपानार्थेमेदोमांसकफापहान् । अतिस्थौल्यविनाशायसंविभज्यप्रयोजयेत् ॥२७॥ .
एवं-विल्वादि पंचमूलके काथमें शहद मिलाकर पिलाना उत्तम मानाहै। अथवा शिलाजीतका प्रयोग करे। अथवा आनिमंथका रस एवं मनशिलका प्रयोग भी परम उत्तम ॥ २४ ॥ अणुव्रीहि नामक धान्य, प्रियंगु (कांगनी धान्य), श्यामाकधान्य, क्षुधान्य जवार, जव, कोद्रव, मूंग, कुलथी, पनवाड (चक्रमर्द), अरहर, पटोल और आंग्लेका यूप यह सव खानेके लिये देना चाहिये । और मधु तथा मल या समयानुसार दोनों मिलाकर अनुगनके लिये देना चाहिये ॥ २५ ॥२६॥
और पीने के लिये या औषधिके पीछे अनुपानके लिये मेदनाशक तथा स्थूलताके नट करनेवाले एवं कफनाशक अरिष्ट देना चाहिये ॥ २७॥
प्रजागरंव्यवायञ्चव्यायामंचिन्तनानच ।
स्थौल्यामिच्छन्परित्यक्तुंक्रमणाभिप्रवर्द्धयेत् ॥ २८ ॥ निस मनुष्यको अपने शरीरकी स्थूलता दूर करनकी इच्छा हो वह रात्रिको जागरण, नोसेवन, व्यायाम, एवं चिन्ता इनका यथाक्रम सेवन करता जावे और धीरे धीरे इनके सेवनको बढाता जावे ॥ २८ ॥
कृशतानाशक प्रयोग। स्वामोहर्षःसुखाशय्यामनसोनिर्वृतिःशमः।चिन्ताम्यवायव्यायामविराम:प्रियदर्शनम् ॥ २९ ॥ नवान्नानिनवंमाग्राम्या