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सूत्रस्थान-अ० २१..
(२३९). हास होना आरंभ होजाताहै तथा शररिमें शिथिलता, सुकुमारता और भारीपनसे बुढापा और छिद्रोंका रुकजाना, वीर्यकी अल्पता, तथा मेदसे शरीरके मार्गोंका रुकनाना, स्त्रीसंगम अधिक कष्ट होना, धातुओंकी सामान्यावस्था न रहनसे दुर्बलता होना, चाके बढनेसे, चीक दोषसे और चर्बीक स्वभावसे एवं पसीनेके आनेसे शरीरमें दुर्वलता बढजाती है तथा कफका संसर्ग, स्थूलता, व्यायामकी असह्यताके कारण पसीने आधिक आने लगतेहैं । एवं अग्निकी क्षीणता, और कोष्ठ वायुकी अधिकताके कारण क्षुधा आर प्यास बहुत बढजातीहै ॥ ४॥
भवान्तिचात्र । मेदसावृतमार्गत्वाद्वायुःकोष्ठेविशेषतः । चरन्सन्धुक्षयत्यग्निमाहारंशोषयत्यपि ॥ ५ ॥ तस्मात्सशीघंजनयत्याहारञ्चावकांक्षति । विकारांश्चाश्नुतेघोराकिञ्चित्कालव्यतिक्रमात् ॥६॥ एतावपद्रवकरौविशेषादग्निमारुतौ । एतौहिदहतःस्थलं वनदावोवनयथा ॥ ७ ॥ यहां पर कहतेहैं कि, मेदद्वारा सूक्ष्म मार्गोंके बंद होजानेसे वायु कोठेमें विशेपतासे विचरण करताहै तथा जठरामिको प्रज्वलित करके आहारको सुखादेताहै। यही कारण है कि मेदस्त्री पुरुषका आहार शीघ्र पचजाताहै एवं भोजन करनेकी वारवार इच्छा होने लगतीहै, यदि मेदस्वी मनुष्यको भोजन मिलनेमें किंचित देरे होतीहै तोवह घोरतर दुःखोंको प्राप्त होताहै । मेदस्वी पुरुषके शरीरमें आनं
और वायु इस प्रकार विशेष उपद्रव करतेहैं जैसे दावानल वनको भस्मकर डालताहै ऐसे ही मेदके शिवाय अन्य धातुओंको भी यह नाश करडालतेहैं ॥५॥६॥७॥
मेदके बहुत बढजानेके दोष । मेदस्यतीवसंवृद्धसहसैवानिलादयः । विकारान्दारुणान्कृत्वा नाशयन्त्याशुजीवितम् ॥ ८॥ मेदोमांसातिवृद्धत्वाञ्चलस्फिगुदरस्तनः। अयथोपचयोत्साहोनरोऽतिस्थलउच्यते ॥ ९ ॥ इतिमेदस्विनादोषाहेतवोरूपमेवच । निर्दिष्टवक्ष्यतेवाच्यमतिकाश्यऽप्यतःपरम् ॥ १०॥
शरीरमें मेद वृद्धिको प्राप्त होकर वात, पित्त, कफके अनेक प्रकारके रोगोंको प्रगट करके जीवनको नष्ट करदेताहै ॥ ८ ॥ मेद और मांसके अत्यन्त वढनेसे नितंब उदर एवं स्तन थलथल करने लगजातेहैं । इस प्रकार वृथा मोटापन होनेसे