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सूत्रस्थान-अ० २०.
(२२७) यः । अष्टोदरीयेरोगाणामध्यायेसम्प्रकाशिताः॥९॥१०॥ इति अग्निवेशकृतेतन्त्रेचरकप्रतिसंस्कृतेरोगचतुष्के अष्टो
दरीयोनामोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥ .' यहां अध्यायकी पूर्तिमें दो श्लोक हैं कि इस अष्टोदरीय अध्यायमें-बीस २ प्रकारके तीन रोग । एक २ प्रकारके तीनरोग । तीन २ प्रकारके तीन रोग। दो दो प्रकारके आठ रोग । चार २ प्रकारके १० रोग । पांच २ प्रकारके १२ रोग। आठ २ प्रकारके चार रोग । छ २ प्रकारके दो रोग । सात २ प्रकारके तीन रोग इस प्रकार रोगसंग्रहका कथन किया है ॥९॥१०॥ इति श्रीमहर्षिचरकप्र० पं० रामप्रसाद. भाषाटीकायामष्टोदरीयो नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥
विशोऽध्यायः।
अथातो महारोगाध्यायंव्याख्यास्याम इति हस्माहभगवानात्रेयः। . : अब हम महारोगाध्यायकी व्याख्या करतेहैं ऐसा आत्रेय भगवान् कहनेलगे। :
रोगोंके भेद। चत्वारोरोगाभवन्तिआगन्तुवातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः तेषांचतुर्णामपिरोगाणांरोगत्वमेकविधरुक्सामान्यात् । द्विविधापुनः प्रकृतिरेषामागन्तुनिजविभागाद्विविधंवेषामधिष्ठानमनःशरीरविशेषात् । विकाराःपुनरेषामपरिसंख्येया:प्रकृत्यधिष्ठानलि
हायतनविकल्पविशेषाणामपरिसंख्येयत्वात् ॥१॥ | रोग चार प्रकारके होते हैं । वातज, पित्तज, श्लेष्मज और आंगतुज । परन्तु उन चारोंके ही दुःखदाई होनेसे सामान्यतासे एक प्रकारका ही रोग माना है। वह फिर निज और आगंतुन भेदसे दो प्रकारके स्वभाववाले होते हैं । इन विविध रोगोंका अधिष्ठान भी मन और शरीर दो प्रकारका है ॥ फिर रोगोंके, स्वभाव, अधिष्ठान, लक्षण, निदान, विकल्प, इनमें अंशादि असंख्यता होनेसे रोग भी असंख्य होते हैं ॥१॥ रोगोंका निज आगन्तुकादि भेदोंसे सकारण वर्णन और रोगकल्पना क्रम । मुखानितुखल्वागन्तो नखदशनपतनाभिचाराभिशापाभिषण- .