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सूत्रस्थान-अ० २०.
(२३१) पमपरिणामिकर्मणश्चस्वलक्षणंयदुपलभ्यतदवयवाविमुक्तसन्देहावातविकारमेवाध्यवस्यन्तिकुशलाः ॥ १२ ॥ वातरोग असंख्य होते, परंतु यहां पर उन असंख्य विकारोंमें जो मुख्य २ हैं उनका कथन करदियाहै इन वातविकारोंमें तथा इनसे अन्य जो यहां पर नहीं कहेगये उनमें भी वायुके विकृत और अविकृत अवस्थाके कर्म, लक्षण तया अंशादि विचार कर संदेहरहित कुशल वैद्य वातविकारोंको जाने क्योंकि विकृत वायु अपनी अवस्था छोडदेनेसे जिस स्थानमें प्रवेश करताहै उसी स्थानमें अनेक विकारोंको उत्पन्न कर देताहै, इसलिये वातके स्वभाव, लक्षणों को समझलेना बुद्धिमान् वैद्यका कर्म है ॥ १२ ॥
तद्यथा। रौक्ष्यलाघववैषद्यं शैत्यंगतिरमृर्तत्वञ्चोतवायोरात्मरूपाणि । एवंविधत्वाच्चकर्मणश्चस्वलक्षणमिदमस्यभवति तंतंशरीरावयवमाविशतःस्त्रंसग्रंशव्यासाङ्गभेदसादहर्ष-तर्षावर्त-मर्दकम्पचालतोदव्यधवेष्टभङ्गास्तथाखरपरुषविषदसुषिरतारुणकषायविरसता-शोषशलसुप्तिसंकुचनस्तम्भनानिवायोःकर्माणितैरन्वितंवातविकारमेवाध्यवस्येत् ॥ १३ ॥
अब उन वायुके धर्मोको कहतेहैं।जस-क्षता,लघुता,विशदता,शीतता,गमनशीलता, सूक्ष्मता, यह वायुके आत्मरूप हैं। इन ही धर्मोंवाले वायुके कर्म और लक्षण होतेहैं । जब यह शरीरस्थ विकृत वायु शरीरके जिस २ अंगमें प्रवेश करताहै उसी २ अंगमें वायुके कार्य और लक्षण दिखाईदेतेहैं जैसे संस, भ्रंश, प्रसार, अंगभेद, विषाद, हर्ष, तर्ष, आवर्तन, मर्द, कंप, चालन, तोद,व्यव,वेष्ट, भंगता, कर्कशता, परुषता,विशदता, सुषिरता, अरुणवर्णता, क्षायता, रसाज्ञान, शोष, शूल,सुप्ति, संकोचन,स्तंभन यह वायुके कम हैं।इन लक्षणोंवाले विकारोंको वातविकार मान१३॥
वातरोगों में सामान्यचिकित्साक्रम । तमधुरामललवणस्निग्धाष्णैरुपक्रमैरुपक्रमेत । स्वेदस्नेहास्थापनानुवासननस्तःकर्मभोजनाभ्यङ्गोत्सादनपरिपेकादिभिर्वातहरैर्मात्रांकालश्च प्रमाणीकृत्यास्थापनानुवासनन्तुसर्वथोपक्रमेभ्योवातेप्रधानतमंमन्यन्तेभिपजः ॥१४॥