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(२२६) चरकसंहिता-भा० टी०।
अध्यायका उपसंहार। सर्वएवनिजविकारानान्यत्रवातपित्तकफेभ्योनिवर्तन्ते । यथा शकनिःसर्वादिशमपिपरिपतन्स्वांछायांनातिवर्ततेतथास्वधातुवैपम्यनिमित्ताः सर्वविकारावातपित्तकफान्नातिवर्तन्ते । वातपित्तश्लेष्मणांपुनःसमुत्थानस्थानसंस्थानप्रकृतिविशेषानभिसमीक्ष्यतदात्मकानपिचसर्वविकारांस्तानेवोपदिशन्तिबुद्धिमन्त इति ॥६॥ सब प्रकारके निज रोग-वात, पित्त, कफसे विना नहीं होसकते । जैसे पक्षी उडता २ किसी भी दिशामें घूमताहुआ अपनी छायासे अलग नहीं होसकता इसी प्रकार अपनी २ धातुकी विपमतासे उत्पन्न हुए भी रोग वात, पित्त, कफसे अलग नहीं होसकते । इसी लिये बुद्धिमान्को उचित है कि वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंके कारण, स्थान, लक्षण और प्रकृतिको विचारकर संपूर्ण रोगोंको वात,पित्त, कफ इन दोषोंके अंतर्गत ही माने, क्योंकि संपूर्ण धात्वादि इन तीनोंके ही अधीन हैं ।। ६ ।।
भवतिचात्र । स्वधातुवैषम्यनिमित्तजायेविकारसंघावहवःशरीरे। नतेपृथपित्तकफानिलेभ्यआगन्तवस्त्वेवततोविशिष्टाः ॥७॥ आगन्तुरन्वेतिनिजविकारंनिजस्तथागंतुरतिप्रवृद्धः। तत्रानुवन्धं प्रतिचसम्यक्ज्ञात्वाततः कर्मसमारभेत ॥८॥ आगरम होनेवाले संपूर्ण विकार अपने २ धातुकी विषमतासे अनेक प्रकारके होतेहुए भी वह वात, पित्त, कफसे अलग नहीं होसकते । और आगंतुज विकार भी शरीरमें होकर पीछेसे निज (शारीरिक)रोगोंके समान ही वातादिदोषात्मक होजातहः । ऐसे ही निज रोग भी आगंतुओंके समान लक्षणों को धारण करतेहैं इस लिपे कारणानुबंध और प्रकृतिको भली प्रकार समझकर चिकित्सा आरंभ करनी चाहिये ॥ ७॥ ८॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन।
तत्रश्लोको। विंशकावेककाश्चवत्रिकाचोक्तात्रयस्त्रयः। द्विकाश्चाप्टोचतुष्काश्वदशवादशपञ्चकाः। चत्वारश्चाष्टकावर्गाःपदकोदोसप्तकास्त्र