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चरकसंहिता - भा० टी० ।
पित्तज, कफज, सन्निपातज, कृमिजन्य, इन भेदास शिरोरोग पांच प्रकारका है । शिरोगवाले भेदोंसे ही पांच प्रकारका हृद्रोग है । वात, पित्त, कफ, सन्निपात, और मृद्भक्षणसे पांच प्रकारका पांडुरोग होता है । वातज, पित्तज, कफज, सन्नि - पातज, और आगंतुज इन भेदोंसे उन्मादरोग पांच प्रकारका है । वात, पित्त, कफ और सन्निपातसे चार प्रकारका अपस्मार (मृगी ) रोग होता है । अपस्मा• रके समान ही वातादि चार २ भेद-नेत्ररोग, कर्णरोग, प्रतिश्याच, मुखरोग, ग्रहणीदोष, मदरोग, मूर्च्छारोग इन सबके भी कहे हैं । साहसजन्य, वेगावरोधजन्य, क्षयजन्य और विषमा शनजन्यः इन भेदोंसे शोषरोग चार प्रकारका है । वात, पित्त, कफजनित तीन प्रकारकी सुजन होती है । रक्तवर्ण, ताम्रवर्ण, और श्वेत, इन तीन प्रकारका किलासरोग होता है । ऊध्वर्ग, अधोगामी, उभयगामी, इन तीन प्रकारका रक्तपित्त होता है। ज्वर दो प्रकारके हैं । एक ठंढेसे, जिसमें शीतकी अधिकता होती है । दूसरा गरमीसे प्रगट होकर गरमीकी अधिकतावाला होता है । निज और आगंतुज भेदसे व्रण दो प्रकारके होते हैं। आयाम दो प्रकारका. है एक अंतरायाम दूसरा वाह्यायाम । गृध्रसी दो प्रकारका है- एक वातंज, दूसरा वातकफज | कोष्ठाश्रय और शाखाश्रयके भेदसे कामला दो प्रकारका है। अलसक ओर विसूचिका भेदसे आमरोग दो प्रकारका है । वातरक्त दो प्रकारका है गंभीर और उत्तान | बवासीर दो प्रकारकी है एक आर्द्र दूसरी शुष्क । आमयुक्त त्रिदोषसे उत्पन्न हुआ ऊरुस्तंभ एक प्रकारका है । त्रिदोषसे उत्पन्नहुआ संन्यास एकप्रकारका हैं इसका अधिष्ठान मन और शरीर है । तत्त्वज्ञानमें मनका योग न होना ही एक महाव्याधि है ॥ २ ॥
विंशतिः किमिजातयइतियूकाः पिपीलिकाचेतिद्विविधावहिर्मलजाः केशादालोमादालो मद्वपाः सौरसाऔदुम्बराजन्तुमातरश्चेतिपट्शोणितजाः अन्त्रादाउदराहृदयचराः चुरवोदर्भपुप्पाः सौगन्धिका महागुदाश्चेतिसप्तकफजाः ककेरुकाम केरुका लेलिहाः सशृटकाः सौसुरादाश्चेतिपञ्चपुरीपजाइति विंशतिः क्रिभिजातयः ॥ ३ ॥
यस प्रकारको कृमियोंको जातिय है। उनमें यूका और पिप्पलीक यह दो प्रकार के कामे बाहर के मलसे होते हैं । और केशाद, लोमाद, लोमद्विप, सौरस, उदुंबर, जंतुमातर यह छः कारके कामे रक्तसे प्रकट होते हैं | अंत्राद, उदराद, हृदयचर,
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च्ख दर्भपुष्प, सांगधिक, महागुद यह सात प्रकारके कृमि कफस प्रकट होते हैं ।