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सूत्रस्थान-अ० १८ः
(२१९) वात, पित्त, कफ यह तीन प्राणधारियोंके शरीरमें नित्य रहतेहैं । परन्तु यह साम्यावस्थामें हैं अथवा विकृत ( विगडी) अवस्थामें हैं यह बुद्धिमानकों परीक्षा करलेना चाहिये ॥ ४६ ॥
विकाररहित शुद्धवायु दोषोंके कर्म । उत्साहोच्छासनिःश्वासचेष्टाधातुगतिःसमा।
समोमोक्षोगतिमतांवायोःकर्माविकारजम् ॥४७॥ शरीरमें प्रकृतिस्थ वायु रहनेसे-उत्साह, सांसका आना जाना, चेष्टा, धातु ओंकी अवस्था यह समान रहती हैं और मलमूत्रादिकी गति ठीक रहती है । यहः विकारको नहीं प्राप्त हुए वायुके कर्म हैं ॥ ४७॥
दर्शनपक्तिरुष्माचक्षुत्तृष्णादेहमार्दवम् ।
प्रभाप्रसादोमेधाचपित्तकम्माविकारजम् ॥४८॥ दीखना, अन्नका परिपाक, शरीरमें गरमाई, भूख, प्यास, देहमें नरमी, कांति 'प्रसन्नता, मेघा, इनका उत्तम होना यह प्रकृतिस्थ अर्थात् विकाररहित पित्तका कर्म है ।। ४८॥
स्नेहोवद्धःस्थिरत्वञ्चगौरवंवृषतावलम्। क्षमाधुतिरलोभश्चकफकर्माविकारजम् ॥४९॥
कफके प्रकृतिस्थ रहनेसे शरीरमें स्निग्धता, गठनता, दृढता, गुरुता, वृष्यता,. बल, क्षमा, धृति, निलोभता, यह होते हैं ॥ १९ ॥
वातपित्तकफैश्चैवन्यनेलक्षणमुच्यते ।
कर्मणांप्रकतेहानिर्वृद्धिपिविरोधिनाम् ॥ ५० ॥ वात, पित्त, और कफके क्षीण होनेसे ऊपर कहेहुए स्वाभाविक गुणोंकी हानि होती है और विपरीत कर्मोंकी वृद्धि होती है ॥ ५० ॥
दोषप्रकृतिवशेष्यनियतंवृद्धिलक्षणम् ।
दोषाणांप्रकृतिहानिर्वृद्धिापिपरीक्ष्यतेइति ॥५१॥ दोषोंको स्वभावोंका विशेष प्रतीत होना दोष वृद्धिके लक्षण हैं, इसलियों __ दोषोंकी साम्यावस्था, क्षीणता, और वृद्धिकी परीक्षा करना चाहिये ।। ५१ ॥