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चरकसंहिता - भा० टी० ।
भवन्तिहि । निदानवेदनावर्णास्थान संस्थाननामभिः ॥ ॥ ४० ॥ व्यवस्थाकारणंलेपांयथास्थूलेषुसंग्रहः । तथाप्रकृतिसामान्यंविकारेषूपदिश्यते ॥ ४१ ॥
व्याधियां साध्य और व्यसाध्य भेदसे दो प्रकारको होती हैं । वह दोनों भी मृदु और दारुण भेदसे चार प्रकारकी होजाती हैं ।। ३९ ।। फिर वह व्याधियां- पीडा वर्ण, कारण, स्थान, आकृति, इन भेदोंसे अलग २ होती हुई असंख्य होजाती हैं | उनकी व्यवस्था करने के लिये उनमेंसे मुख्य २ व्याधियोंका संग्रह किया गया है । विकारोंका स्वभाव और तुल्यता देखकर उनको जिस दोषजन्य देखे वैसा उपदेश करना चाहिये ॥ ४० ॥ ४१ ॥
व्याधियोंके नाम रखने का क्रम ।
विकारनामा कुशलोनजिहीयात्कदाचन । नहिसर्वविकाराणां नामतोऽस्तिध्रुवागतिः ॥ ४२ ॥ सएवकुपितो दोषः समुत्थानविशेषतः । स्थानान्तरगतश्चैवजनयत्यामयान्बहून् ॥ ४३ ॥ तस्माद्विकारप्रकृतीरधिष्ठानान्तराणिच । समुत्थान विशेषांश्रबुद्ध्वाकर्मसमाचरेत् ॥ ४४ ॥
इसीलिये याद किसी रोगका नाम न मिलसके सो वैद्यको लज्जित नहीं होना चाहिये, क्योंकि संपूर्ण रोगोंका नाम नहीं कहा जासकता (हां उन रोगांको प्रकृति और तुल्यतासे वातादिदोषजन्य जानकर यत्न करे ) ॥ ४२ ॥ क्योंकि एक दोष ही कुपित होकर भिन्न २ कारणों से अलग २ स्थानांमें जाकर अनेक रोगोंको उत्पन्न करताँएँ इसलिये ऐसे रोगांकी प्रकृति और स्थानभेद तथा कारणविशेषको जानकर चिकित्साकर्म करे ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
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योह्येतत्रिविधंज्ञात्वाकर्माण्यारभतेभिपक् ज्ञानपूर्वयथान्यार्थसकर्म सुन मुह्यति ॥ ४५ ॥
जो वैद्य - साध्य, असाध्य, याप्य, इन तीन भेदाको समझकर चिकित्सा आरंभ करता है वह मोहको प्राप्त नहीं होता है ॥ ४५ ॥
दोषांका नित्यत्व | नित्याः प्राणभृतांदेहेवातपित्तकफास्त्रयः ।
धिकृताःप्रकृतिस्थावादान्बुभुत्सेतपण्डितः ॥ १६ ॥