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( २०८. )
चरकसंहिता - भा० टी० ।
प्राकृत अर्थात् प्रकृतिस्थ पित्तकी गर्मी से मनुष्य के अन्नका यथोचित परिपाक होता है, और विकारको प्राप्तहुआ पित्त अनेक रोगोंको उत्पन्न करता है ॥ १११ ॥ प्राकृतस्तुवलंश्लेष्माविकृतोमलउच्यते ।
सचैवौजःस्मृतः कायेसचपाप्मोपदिश्यते ॥ ११२ ॥
प्रकृतिस्थ अर्थात् ठीक स्वभावमें स्थित हुआ कफ शरीरमें वल और भोज कहा जाता । और वही कफ विकृत होनेसे मल (दोष) और पाप कहा जाता है ११२ ॥ सर्वाहिचेष्टात्रातेनसप्राणः प्राणिनांस्मृतः ।
तेनैव रोगाजायन्ते तेन चैवापरुध्यते ॥ ११३ ॥
प्रकृतिस्थ वायुसे ही शरीरियोंके शरीरकी सब प्रकारकी चेष्टा होती हैं और यह वायु ही प्राणियोंका प्राण कहा जाता है । यदि यह वायु विकृत होजाय तो इसीसे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं और यही प्राणोंका अवरोध करता है ॥ ११३ ॥
नित्यं सन्निहितामित्रसमीक्ष्यात्मानमात्मवान् । नित्यंयुक्तःपरिचरेद्विच्छिन्नायुरभित्वरम् ॥ ११४ ॥
क्योंकि रोगरूपी शत्रु सदैव मनुष्योंके निकट रहते हैं इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य उचितानुचितको देखता हुआ आयुकी रक्षामें नित्य यत्नवान् रहे ॥ ११४ ॥ अध्यायका संक्षिप्त वर्णन । तत्र श्लोक |
शिरोरोगाः सहृद्रोगारोगामानविकल्पजाः । क्षयाः सपिडकाश्रोक्तादापाणां गतिरेवच ॥ ११५ ॥ कियन्तः शिरसीयेऽस्मिन्नध्यायेतत्त्वदर्शिना। ज्ञानार्थभिषजाञ्चैवप्रजानाञ्च हितैषिणा॥ ११६ ॥ इति रोगचतुष्के कियन्तः शिरसीयोनाम सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः ।
यहां अध्यायको समाप्तिमें श्लोकहें कि इस 'कियन्तः शिरसोय' अध्यायमं- शिरोरोग. हृद्रोग, रोगोंका मानभेद, क्षयांक प्रकार, पिडकाओंके भेद, दोषांकी गति यह नव वैद्यलोगोंके ज्ञानके लिये और प्रजाके हितके लिये भगवान् आत्रेयजीन वर्णन किया ॥ ११५ ॥ ११६ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक मंत्ररामप्रसाद भाषाटीकायां कियन्तः शिरसीया नाम दशोऽध्यायः ॥ १७ ॥