________________
(२०९)
सूत्रस्थान-अ०.१८ अष्टादशोऽध्यायः।
अथातस्त्रिशोफीयमध्यायंव्याख्यास्यामइतिहस्माहभगवानात्रेयः। अब हम त्रिशोफीय अध्यायकी व्याख्या करतहैं ऐसा भगवान् आत्रेयजी कहनेलगे।
सूजनोंके भेद तथा वातादिजन्य लक्षण । त्रयःशोथाभवन्ति । वातपित्तश्लेष्मनिमित्ताः।
तेपुनर्द्विविधाः निजागन्तुभेदेन। शोथ (सूजन) तीन प्रकारका होताहै । एक वातका, दूसरा पित्तका, तीसरा कफका । वह भी फिर दो प्रकारका होताहै एक निज, दूसरा आगंतुक ।
आंगतुज शोथके हेतु लक्षण। तत्रागन्तवा छेदनभेदनक्षणनभञ्जनपिच्छनोत्पेषणप्रहारवधबन्धनवेष्टनव्यधनपीडनादिभिर्वा। भल्लातकपुष्पफलरसात्मगुप्ताशूकक्रिमिशूकाहितपत्रलतागुल्मसंस्पर्शनेवास्वेदनपरिसर्पणावमूत्रणेविषिणाम् । सविषाविषप्राणिदंष्ट्रादन्तविषाणनखनिपातैर्वा । सगरविषवातहिमदहनसस्पर्शनैर्वाशोथा: समुपजायन्ते। तेयथास्वहेतुजैर्व्यञ्जनैरादावुपलभ्यन्ते। निजव्यञ्जनैकदेशविपरीतैः व्रणबन्धमन्त्रागदप्रलेपप्रवातनिर्वापणादिभिश्चोपक्रमैरुपक्रम्यमाणाःप्रशान्तिमापंद्यन्ते ॥१॥ उनमें आगंतुक शोथ-छेदन, भेदन, क्षणन (घसीट लगना), भजन, पिच्छन (दवना), उत्पेषण, प्रहार, वध, बंधन, वेष्टन, व्यधन और पीडन आदिसे उत्पन्न होताहै । अथवा भिलावेके फूल, फल, रस, कौंचको फली, शुकविशेष, कृमियोंसे वा अन्य विषैले पत्र, लवा, गुल्म आदिके स्पर्श, स्वेद, परिसर्पण, वामूत्र आदिसे अथवा विषवाले वा विना विषवाले प्राणियोंके दांत, सींग, नख, आदि लगनेसे अथवा गर, विष, पवन, हिम और अमिके लगनेसे जो शोथ ( सूजन ) होताहै उसको आगंतुक शोथ कहतेहैं । वह आगंतुक शोथ अपने कारण और लक्षणोंसे प्रथम ही जाना जासकता है, क्योंकि यह शोथ निज कारणोंसे विपरीत अर्थात् बाहरी कारणोंसे प्रगट होताहै । व्रणबंधन, मंत्र, अगद, प्रलेप, सेक और निर्वापण आदि चिकित्सा द्वारा आगंतुज शोथ शांत होजाताहै ॥ १॥