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चरकसंहिता - भा० टी० ।
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नप्रशमोभवति। पाण्डुःश्वेतावभासः स्निग्धः श्लक्ष्णः गुरुः स्थिरः स्त्यानः शुक्लायरोमा स्पर्शोष्णसहश्चति श्लेष्मशोथः ॥ ५ ॥ भारी, मीठे, शीतल, चिकने पदार्थों के सेवन से अधिक सोनेसे, परिश्रम न करने से कफ कुपित होकर त्वचा, मांस, रुधिर आदिकोंमें प्रवेश कर शोथको उत्पन्न करता है । वह शोथ देरमं प्रगट होता है और देरमें ही शांत होता है । और पांडु या सफेद वर्णका होता है, तथा चिकना, गाढा, भारी, कठोर, गीला सा होताहै, लोमोंका अग्रभाग सफेद सा होजाता है और इस शोथ पर गरम स्पर्श प्रिय मालूम होता है । यह कफके सूजनके लक्षण हैं ॥ ५ ॥
द्विदोषजादिभेद । यथास्वकारणाकृतिसंसर्गाद्दिदोषजास्त्रयः शोथाः भवन्ति तथास्वकारणाकृतिसन्निपातात्सान्निपातिकएकः । एवंसप्तवि
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धोभेदः! प्रकृतिभिस्ताभिर्भिद्यमानोद्विविधस्त्रिविधश्चतुर्विधः सप्तविधश्चशोथउपलभ्यते । पुनश्चैकएवोत्सेधसामान्यादिति ॥६॥ दो दो दोषोंके कारण और लक्षणों के सम्बन्धसे वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज इन भेदासे तीन प्रकारका सृजन होता है। ऐसे ही तीनों दोषोंके कारण और लक्षण मिलने से सन्निपातका १ सृजन होता है । इस प्रकार निज सूजनके सात भेद हुए । प्रथम स्वभावभेदसे निज और आंगतुज सूजन दो प्रकारका है । फिर वात, पित्त, कफ इन भेदासे तीन प्रकारका होता है । और वातपित्तज, वातकफज, पित्तकफज, सत्रिपातज इन भेद से चार प्रकारका हुआ, वातादिकों के भेदोंसे सन्निपातपर्यंत सात प्रकारका हुआ । सामान्य शोथ धर्मसे देखाजाय तो शोथ एक ही प्रकाका है ॥ ६ ॥
वातजशोय के लक्षण |
भवतिचात्र । शूयन्तेयस्यगात्राणिस्वपन्तीवरुजन्तिच । निपीडितान्पुन्नमन्तिवातशोथन्तमादिशेत् ॥ ७ ॥ यश्चाप्यरुणवर्णाभिः शोथोन क्तंप्रणश्यति । स्नेहोष्णमर्दनाभ्याञ्च प्रणश्येत्सवातिकः ॥ ८ ॥
औरभी कहा कि जिस सृजन के अंग सोण्डुएसे प्रतीत हों और पीडा होती हो तथा अंगुली दबाने पर दबजाय और अंगुली टटानेसे फिर ऊपर उठआवे उसको वातका सृजन जानना | और जो शोय लाल वर्णका हो, रात्रिमें कुछ शांत होजाय