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चरकसंहिता-भा० टी । पित्तके क्षय होनेपर फफ-वायुसे मिलकर विचरताहुया स्तंभ, शीतता, तोद, गुरुता, मंदाग्नि, अन्नसे द्वेष, कंप, नखादिकोंमें श्वेतता तथा देहमें कठोरता करताहै ॥ १२ ॥५३॥
हीनेकफेमारुतस्तुपित्तंतुकुपितंद्वयम्। करोतियानिलिङ्गानिशणुतानिसमासतः ॥५४॥भ्रममुद्वेष्टनन्तोदंदाहंस्फोटनवेपनम् । अङ्गमर्दपरीशोषहृदयेधूपनंतथा ॥५५॥ . कफके क्षय होनेपर वायु और पित्तोंके मिलकर जो चिह्न होते हैं उनको भी संक्षे. बसें सनो । वह यह हैं-भ्रम, उद्वेष्टन, तोद, दाह,हड्डियोंका स्फोटन,कंपन,अंगमर्द, देहका शोष, हृदयमें धूवांसा उठना ॥५४ ॥५५॥
वातपित्तक्षयेश्लेष्मास्त्रोतांस्यभिधशम् ।
चेष्टाप्रणाशंमूछीञ्चवाक्सगचकरोतिहि ॥ ५६ ॥ वात पित्तके क्षय होनेपर कफ स्रोतोंको अच्छीतरहसे रोककर चेष्टांका नाश, मूळ, और वाणीका अवरोध करताहै ॥ ५६ ॥
श्लेग्मवातक्षयेपित्तंदेहौजःस्रंसयेद्यदा।
ग्लानिमिन्द्रियदौर्बल्यंतृष्णांमच्छक्रियाक्षयम् ॥ ५७ ॥ वात और कफके क्षय होने पर पित्त देहके ओजको विगाडकर ग्लानि, इंद्रिः । योंकी दुर्वलता, तृषा, मुर्छा और देहकी क्रियाका नाश करताहै ॥ १७ ॥
पित्तश्लेष्मक्षयवायुर्मर्माण्यातीनपीडयन् ।
प्रणाशयतिसंज्ञांचवेपयत्यथवानरम् ॥ ५८॥ जब पित्त और कफ क्षीण होजाते हैं तो वायु मर्मस्थानोंको पीडित करता हुआ संज्ञाका नाश करताहै अथवा कंप पैदा करताहै ॥ ५८ ॥
दोपाःप्रवृद्धाःस्वंलिड्दर्शयन्तियथावलम् ।
क्षीणाजहतिलिस्वंसमाःसङ्कमकुर्वते ॥ ५९॥ जब दोप वढ जातेहैं तो अपने २ लक्षणांको दिखातेहें। ऐसे ही क्षीण हुए दोष अपने चिदाको त्यागदेतेहैं । और साम्यावस्थाम स्थितंहुए दोष अपने योग्य कार्य करतेहैं ॥ ५९॥
वातादीनांरसादीनांमलानामोजसस्तथा ॥ क्षयस्तत्रानिलादीनामुक्तंसंक्षीणलक्षणम् ॥ ६॥