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कीसी दुर्गन्धलाई । वस्तिस्थान में किन होने से हडियोंमें पाडापाडा होतीहै । नाभि
. . सूत्रस्थान-अ० १७. (२०६) अब हम इ विद्रधियोंके साध्यासाध्य विशेष ज्ञानके लिये स्थानभेदसे लक्षणोंको कहतेहैं । इनमें प्रधान मर्म (हृदय) में विद्रधि हो तो हृदयका घबडाना, तमकश्वास, बेहोशी, खांसी, यह उपद्रव होतेहैं । लोमस्थानमें विद्रधि हो तो-प्यास लगना, मुखका सूखना, गलेका रुकना, यह लक्षण होतेहैं । यकृतमें विद्रधि हो तो श्वास होताहै । प्लीहामें विद्रधि होनेसे श्वास रुक जाताहै । कुक्षिमें विद्रधि हो तो कूख, पसवाडा, और पीठका वांस तथा इनके भीतरी अंशमें पीडा होती है। वृक्त स्थानमें विद्रधि होनेसे पसवाडा, पीठ और कमरमें पीडा होतीहै । नाभिमें होनेसे हिचकी होती हैं । वंक्षणस्थानमें होनेसे हड्डियोंमें पीडा और टांगोंका रहजाना यह लक्षण होतेहैं । वस्तिस्थानमें विद्राधि होनेसे मूत्रकृच्छू, और मलमूत्रका राधकीसी दुर्गन्धयुक्त आना यह लक्षण होतेहैं ॥ ९६॥
पक्कामभिन्नासुऊर्द्धजासुमुखालावःस्रवति ।
अधोजासुगुदात्,उभयतस्तुनाभिजायाम् ॥ ९७ ॥ नाभिसे ऊपरके स्थानोंमें हुई अन्तर्विद्रधि जव पककर फूटती है तो मुखद्वारा नाक. निकलताहै । नाभिसे नीचेके भागोंमें अन्तर्विद्रधि पककर फूटे तो गुदाद्वारा स्राव होताहै । नाभिमें हुई अंतर्विद्रधि फूटे तो मुख और गुदा दोनों द्वारा स्राव होताहै ॥ ९७ ॥
तासांहृन्नाभिबस्तिजाः परिपक्काः सान्निपातिकीचमरणाय । अवशिष्टाःपुनः कुशलमाशुप्रतिकारिणचिकित्सकमासाद्योपशाम्यन्ति । तस्मादचिरोत्थितांविद्रधींशस्त्रसर्पविद्युदग्नितुल्यां स्नेहस्वदविरेचनश्चोपकामेत् । सर्वशोगुल्मवचति ॥९८॥ इन सव स्थानोंकी विद्रधियोंमें हृदय, नाभि, और वस्तिस्थानकी विद्रधि तथा सन्निपातकी विद्रधि मनुष्यकी मृत्युको करनेवाली होती है और अन्य विद्रधियां शीघ्र यत्न करनेवाले कुशल वैद्यसे शीघ्र यत्न करानेसे शांत होसकतीहै । इसलिये शस्त्र, साँप, विद्युत, अग्निके, समान, प्राण हरनेवाली विद्रधिका, विद्रधि होते ही स्नेहन, स्वेदन, विरेचन द्वारा शीघ्र यत्न करे । संपूर्ण अंतविधियों में गुल्मरोगकी समान चिकित्सा करे ।। ९८ ॥ .
प्रमेहके विना भी इन पीडिकाओंकी उत्पत्ति । . भवंतिचात्र । विनाप्रमेहमप्येताजायन्तेदुष्टमेदसः । तावच्चैतानलक्ष्यन्तेयावद्वस्तुपरिग्रहः ॥ ९९ ॥ : .. .