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चरकसंहिता-भा० टी० इस प्रकार कहेहुए आचार्यके वचनको सुन अग्निवेश कहनेलगे कि हे भगवन्! उन रसादिक देहधारी धातुओंके स्वभावका उपराम होने पर चिकित्सामें नियुक्त वैद्यका क्या कार्य है । और किन २ विषम धातुओंको वैद्य औषधिद्वारा साम्य करताहै । और वह चिकित्सा क्या है । तया किस कार्यके लिये उस चिकित्साका प्रयोग कियाजाताहै ।। २७ ॥ २८ ॥
पुनर्वसुका उत्तर । तच्छिष्यवचनं श्रुत्वाव्याजहारपुनर्वसुः । श्रूयतामत्रयासौम्य युक्तिदृष्टामहर्षिभिः ॥ २९ ॥ ननाशकारणाभावाद्भावानां नाशकारणम् ।ज्ञायतेनित्यगस्येवकालस्यात्ययकारणम्॥३०॥ शीघगत्वाद्यथाभूतस्तथाभावोविपद्यतेविरोधकारणंतस्यनास्तिनवान्यथाक्रिया ॥ ३१ ॥ ऐसा शिष्यका कहाहुआ वचन सुनकर पुनर्वसुजी कहनेलगे कि हे सौम्य : इस विषयमें महर्षियाने जिस युक्तिका कथन किया है वह मुन जैसे नित्य कालके नाशका कारण नहीं प्रतीत होता अथवा यों कहिये कि जैसे भूतकाल का शीघ्रगामी होनसे भी नाशका कारण प्रतीत नहीं होता ऐसे ही नाशके कारणके अभावसे भावांका नाश नहीं जाना जाता अर्थात् अभावको जो नाशका कारण मानते हैं वह नहीं हो सकता क्योंकि भूत अवस्थासे जव द्रव्य विकृत हुआ तब वर्तमान अवस्थाम भी वही भूत अवस्या आई और भूत अवस्थाको ही सब लोग नाश कहते हे दर असलमें वह नाशको प्राप्त नहीं हुआ इसलिये चिकित्साका करना भी अन्यथा नहीं हैं ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥
याभिःक्रियाभिर्जायन्तेशरीरेधातवःसमाः साचिकित्साविकाराणांफर्मतद्भिपास्मृतम् ॥ ३२ ॥ कथशरीरेधातूनांवैपम्यन भवेदिति ।समानाञ्चानुवन्धःस्यादित्यर्थंकुरुतेक्रियाः॥ ३३ ॥ जिस क्रियाके करनेसे शरीरकी धातुगं साम्यावस्था प्राप्त होजायें उस क्रियाको विकारों की चिकित्सा कहते हैं । और चिकित्सा करने में जो कर्म होता है वह वैद्योंका कर्म है ।। ३२ ॥ जिस प्रकार करने मे शरीरकी धातुएं विषम न होने पायें और जोतिम हो वह साम्यावस्याम आजाएँ तथा धातुआंकी समता बनी रहंइस पार लिये चिकित्साका प्रयोग किया जाता है ।। ३३ ।।