________________
( १८७)
सूत्रस्थान - अ० १६.
वमन विरेचनातियोग में चिकित्सा । अतियोगानुबद्धानां सर्पिःपानंप्रशस्यते । तैलंमधुकरैः सिद्धमथ वाप्यनुवासनम् ॥ २२ ॥ यस्यत्वयोगस्तंसिद्धं पुनः संशोधयेन्नरम् । मात्राकालबलापेक्षीस्मरन पूर्वमितिक्रमम् ॥ २३ ॥ यादे वमन विरेचनका अतियोग होगयाहो तो उसको योग्य औषधियोंसे सिद्ध किया हुआ घृत पिलावे । अथवा मधुक आदि गणसे सिद्ध किएहुए तैलकी मालिश करे अथवा ऐसे ही तेलसे अनुवासक्रिया करे ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यको वमन, विरेचनका अयोग हुआ हो उसको फिर स्नेहन, स्वेदन करके संशोधन करे । और मात्रा, समय, वल, इनका ध्यान रखना चाहिये, तथा प्रथम कहेहुए वमन विरे - चनके क्रम और पेयादि पान करानेको याद रक्खे ॥ २३ ॥ स्नेहनेस्वेदने शुद्धौरोगाः संसर्जनेचये । जायन्तेऽमार्गविहितेतेषांसिद्धिषुसाधनम् ॥ २४ ॥
स्नेहन, स्वेदन, संशोधन आदि किसी क्रमके वेगडनस जो रोग होते हैं उनका यत्न सिद्धिस्थानमें कहाजायगा ॥ २४ ॥ जायन्ते हेतुवैषम्याद्विषमा देहधातवः । हेतुसाम्यात्समास्तेषां स्वभावोपरमः सदा ॥ २५ ॥ प्रवृत्तिहेतुर्भावानांननिरोधेऽस्तिकारणम् । केचित्वत्रापिमन्यन्ते हेतुहेतोरवर्त्तनम् ॥ २६ ॥
आहार विहार आदि किसी कारणकी विषमता से शारीरिक धातुवोंमें विषमता होती है और इसी प्रकार हेतु (कारण) की समतासे देहधारी धातुओं में भी समता रहती है अर्थात् हेतुवैषम्य से विषमता और हेतुसाम्यसे समता होना यह देहधारक धातुओं में जो विषमता आदि अर्थात् कम और ज्यादा होना है इसका उपराम (नाश ) हो सकता है। परंतु धातुओंका नाश कभी नहीं होता । धातुओंको बढाने में कारणों की प्रवृत्ति होसकती है अर्थात् अपने कारणों के प्रवृत्त होनेसे देहधारी धातु वढ तो सकते हैं परंतु नाशको प्राप्त नहीं होसकते कोई कहते हैं कि बढानेवाले कारणोंकी अप्रवृत्ति (अभाव) से वह बढते नहीं अर्थात् कम होजाते हैं ॥ २५ ॥ २६॥ अग्निवेशका प्रश्न ।. एवमुक्तार्थमाचार्य्यमग्निवेशोऽभ्यभाषत । स्वभावोपरमं कर्म चिकित्साप्राभृतस्यकिम् ॥ २७ ॥ भेषजैर्विषमान्धातून्कान्समीकुरुतेभिषक् । कावाचिकित्सा भगवन् किमर्थंवाप्रयुज्यते ॥ २८॥