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चरकसंहिता - मा० टी० ।
सप्तदशोऽध्यायः ।
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अथातः कियन्तः शिरसीयमध्यायं व्याख्यास्याम इतिहस्माह
भगवानात्रेयः ।
अब हम कियंतःशिरनीय अध्यायका कथन करते हैं । ऐसा आत्रेय भगवान् कहने लगे ।
रोगोंपर अग्निवेशका प्रश्न |
कियन्तः शिरसिप्रोक्तारोगाहृदिचदेहिनाम् ॥ १॥ कतिचाप्यनिलादीनां गामानविकल्पजाः । क्षयाः कतिसमाख्याताः पिडकाः कतिचानघ ॥ २ ॥ गतिः कतिविधाचेोक्ता दोषाणां दोपलदन । हुताशवेशस्यवचस्तच्छ्रुत्वागुरुरब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनिवेश पूछने लगे हे अन ! मनुष्योंके शिरमें कितने रोग होते हैं, हृदयम कितने रोग होते हैं तथा वात, पित्त, कफ के भेदसे और इनके विकल्प तया अंशादिभेदांसे रोग कितने प्रकार के होते हैं, क्षय कितने प्रकारके होते हैं, पिडिका कितने प्रकारकी हैं । हे दोषोंके दूरकरनेवाले गुरो ! दोषों की गति कितने प्रकार की है । निवेश इस वचनको सुनकर गुरु कहने लगे ॥ १ ॥ २ ॥ ३ ॥
गुरुका उत्तर ।
पृष्टवानसि यत्सौम्य तन्मेशृणुसुविस्तरम् । दृष्टाःपञ्चशिरोरोगाः पञ्चैव हृदयामयाः ॥ ४ ॥ व्याधीनांद्वयाधिकापष्टिदोंपमानविकल्पजा । दशाष्टौचक्षयाः सप्तपिडकामधुमेहिकाः ॥५ ॥ दोपाणांत्रिविधाचोक्तागतिर्विस्तरतः शृणु ॥ ६ ॥
हे सौम्य ! जो तुमने मुझसे पूछाहे उसको विस्तारपूर्वक श्रवण करो । शिरमें दोनेवाले रोग पांच प्रकारके देखने में आतेंदें । हृदयके रोग भी पांच प्रकारके ही होते हैं । वातादि दोषोंकी अंशादिभेदकल्पनासे ६२ बासठ प्रकारके रोग होते हैं । क्षय २८ प्रकारके होते | मधुमेहसे सात प्रकारकी पिडका होताहैं । दोषोंकी गति तीन प्रकारकी है। इन सबको अव विस्तारसे सुनो ॥ ४ ॥ ५ ॥ ६ ॥