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सूत्रस्थान-अ० १६.
(१८५) काले रंगका रुधिर गिरना । और बेहोशी, प्यासकी अधिकता तथा वायुका कोप होना यह विरेचनके अतियोगके लक्षण हैं ॥ ७॥८॥ .
वमनातिकृतलिंगान्येतान्येवभवन्तिहि ।
ऊर्द्धगावातरोगाश्चवाग्ग्रहश्चाधिकोपमः॥९॥ . वमनके अतियोग होनेसे भी यही लक्षण होतेहैं परंतु ऊर्ध्वजत्रुगत वायुके रोग और वाणीका रुकना यह विरेचनके अतियोगसे वमनके अतियोगमें अधिक होतेहैं ॥९॥
चिकित्साप्राभृतंतस्मादुपेयात्कारणनरः।
युञ्ज्याद्यएनमत्यन्तमायुषाचसुखेनच ॥ १०॥ इसीलिये चिकित्साके जाननेवाले सुज्ञ वैद्यको शरणमें ही मनुष्यको स्वेदन, वमन विरेचनादि लेने चाहिये क्योंकि योग्य वैद्य ही इसकी आयु और मुखकी रक्षा करताहै ॥ १०॥
संशोधनीय रोग। अविपाकोऽरुचिःस्थौल्यंपाण्डुतागौरवंक्लमः।पित्तकाकोठकण्डूनांसम्भवोऽरतिरेवच ॥११॥ आलस्यं श्रमदौर्बल्यंदोर्गन्ध्यमवमादकः । श्लेष्मपित्तसमुत्क्लेशोनिद्रानाशोऽतिनिद्रता॥१२॥ तन्द्राक्कैव्यमबुद्धित्वमशस्तस्वप्नदर्शनम् । बलवर्णप्रणाशश्चतृप्यतोव्हणैरपि ॥ १३ ॥ बहुदोषस्यलिङ्गानितस्मैसंशोधन हितम् । अर्द्धश्चैवानुलोमञ्चयथादोषंयथावलम् ॥ १४ ॥
अन्नका परिपाक न होना, असाचे, स्थूलता, पांडु, गुरुता, क्लम, फोडे, कोठ, जिल्दपर चकत्तेसे होना, खाज, इन सबका अधिकतासे होना, आलस्य, दुर्बलता, श्रम, देहसे दुर्गंध आना, अंगोंका अवसाद, श्लेष्मा और पित्तकी अधिकता, दिलमचलाना, निद्राका नाश, अथवा अतिनिद्रा, नपुंसकता, तन्द्रा, बुद्धिनाश, खराब स्वप्न दीखना, बल और वर्णका नाश होना, यह लक्षण बृंहणद्वारा अत्यन्त संतर्पित होनेसे होतेहैं ॥ ११ ॥ १२॥ १३ ॥ और यही लक्षण जिसके शरीरमें बहुत दोष वढेहुए हों उसके भी होतेहैं । ऐसे समय संशोधन करना परम हितकारक होताहै । वह शोधन दोषादि विचारकर ऊर्वशोधन या अधाशोधन अथवा वमन विरेचन द्वारा दोनों तर्फसे शोधन करना चाहिये ॥१४॥