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सूत्रस्थान - अ० ७.
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पापके आचरणवाले, पापयुक्त वाक्य कहनेवाले, पापी मनवाले, झूठे, दभी, 'कलहप्रिय, दूसरोंके चित्तों को दुःखप्रद हास्य करनेवाले, अतिलोभी, पराई समृद्धिको देखकर जलनेवाल, शठ, पराईं निंदामें रत रहने वाले, परस्त्रीगामी, निर्दयी, धर्मसेंविहीन ऐसे अधम मनुष्यों का संग कभी नहीं करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ सेवन करने योग्य पुरुष बुद्धिविद्यावयः शीलधैय्र्यस्मृतिसमाधिभिः । वृद्धोपसेविनो वृद्धाःस्वभावज्ञागतव्यथाः ॥ ५६ ॥ सुमुखाः सर्वभूतानां प्रशान्ताः शंसितव्रताः I सेव्याःसन्मार्गवक्तारः पुण्यश्रवणदर्शनाः ॥ ५७ ॥
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जो मनुष्य बुद्धि, विद्या, अवस्था, शीलता, धैर्य, स्मृति, समाधि, इन गुणोंसे युक्त हो तथा वृद्ध पुरुषोंकी सेवा कियाहुआ हो और स्वयं भी योग्य या वृद्ध हो, जिसको दुनिया के हाल मालूम हों, जिसके चित्तमें ईर्ष्या आदि विकार न हों, उत्तम सत्य, मीठे वाक्य बोलनेवाला हो, जो सबसे शांतिपूर्वक बर्ताववाला हो, और जिनका शुद्ध आचार हो तथा अच्छे मार्गका उपदेश करनेवाला हो जिसका दर्शन पुण्यकारक हो, ऐसे भद्रपुरुषका संग अवश्य करना चाहिये ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ भोजन आदिमें नियम | आहाराचारचेष्टासुसुखार्थीप्रेत्य चेह च । परंप्रयत्नमातिष्ठेद्बुद्विमान् हितसेवने ॥ ५८ ॥ ननक्तंदधिभुञ्जीतन चाप्यघृतशकरम् । नामुद्गसूपनाक्षौद्रनोष्णनामलकैर्विना ॥ ५९ ॥ अलक्ष्मी दोषयुक्तत्वान्नक्तन्तुदधिवर्जितम् । श्लेष्मणस्यात्ससर्पिष्कंदधिमारुतसूदनम् ॥६०॥ नचसन्धुक्षयेत्पित्तमाहारचं विपाचयेत् । शर्करा संयुतं दद्यात्तृष्णा दाहनिवारणम् ॥ ६१ ॥ मुद्गसूपेनसंयुक्तं दद्याद्रक्तानिलापहम् । सुरसञ्चाल्पदोपञ्चक्षैौद्रयुक्तं भवेद्दधि ॥ ६२ ॥ उष्णंपित्तास्रकंद्दोषान्धात्रीयुकन्तुनिर्हरेत् । ज्वरास पित्तवीसर्पकुष्ठपाण्ड्रामयभ्रमान् ॥६३॥ प्राप्नुयात्कामलाञ्चाग्रांविधिहित्वादधिप्रियइति ॥६४॥ बुद्धिमान मनुष्य इस लोक और पर लोकके सुखकी इच्छा करता हुआ हितका रक आहार विहारका यत्नसे सेवन करता है ॥ ५८ ॥ रात्रिके समय दहो न खावे !
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