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सूत्रस्थान - अ० १४. .
( १७१ ),
पथ्याशनोभवेत् । तदहः स्विन्नगात्रस्तुव्यायामं वर्जयेन्नरइति ॥ ६९ ॥
इसी प्रकार एकांगगत और सर्वागगत इन भेदोंसे स्वेद दो प्रकारके हैं। आर रूक्षस्वेद तथा स्निग्धस्वेद इन भेदोंसे दो प्रकारके हैं यह तीन द्वन्द्व स्वेदके कहे हैं । स्नेहन स्वेदन के अनन्तर रोगी पथ्यपूर्वक रहे। जिस दिन पसीना लियाहों सब कामको छोडकर वैद्यकी आज्ञाका पालन करे ॥ ६८ ॥ ६९ ॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन | तत्र श्लोकाः ।
स्वेदोयथाकार्यकरोहितोयेभ्यश्चयद्विधः । यत्रदेशे यथायोग्यो देशोरक्ष्यश्चयायथा ॥ ७० ॥ स्विन्नातिस्विन्नरूपाणितथातिस्विन्नभेषजम् | अस्वेद्याः स्वेदयोग्याश्च स्वेदद्रव्याणि कल्पना ॥ ७१ ॥ त्रयोदशविधः स्वेदोविनादशविधोऽग्निना । संग्रहणचषट्स्वेदाः स्वेदाध्यायेनिदर्शिताः ॥ ७२ ॥
अब अध्यायका उपसंहार करते हैं, कि इस स्वेदाध्यायमें जो २ स्वेदसे लाभ होते हैं । जिसतरहका स्वेद जिसके लिये हित और अहित है । जिस देशमें जैसे जो स्वेद योग्य है । उत्तम स्वेद और अतिस्वेदके लक्षण | अतिस्वेदितकी औषधि जिनको स्वेदन नहीं करना जो स्वेदनयोग्य हैं। स्वेदन के द्रव्य और उनकी कल्पना तेरह प्रकार के स्वेद | अग्निसे विना दश प्रकारके स्वेद छः वेदोंका संग्रह। ये वर्णन कियेहैं ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ॥
स्वेदाधिकारेयद्वाच्यमुक्तमेतन्महर्षिणा । शिष्यैस्तुप्रातपत्तव्यमुपदेष्टापुनर्वसुरिति ॥ ७३ ॥
इस प्रकार इस अध्याय में पुनर्वसुजीने कथन किया जो कुछ भी स्वेदाधिकारमें कहना था वह सव महर्षिजीने कथन करादया । शिष्यगणोंको इस कथनका पालन करना चाहिये ॥ ७३ ॥
इति श्रीमहर्षिचरक० पं० रामप्रसाद० भाषाटीकायां स्नेहाऽध्यायश्चतुदशः ॥ १४ ॥