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सूत्रस्थान - अ० १५..
( १८१ ) कर देवे | चौथे समय साठीके चावलोंको बहुत नरम और गाढेसे बनाकर देवे अथवा उन चावलोंकी विलपीमें थोडी सी चिकनाई और सेंधानमक मिलाकर देवे। और गर्म जल पनिको देवे । ऐसे ही पांचों, छठे भोजनके समय भी करे । सातवे समय साठी या शालीचावलौका नरम बनाहुआ आधसेर भात और थोडेसे नमक और चिकनाई युक्त मूंगका यूष देवे और गर्म जल पिलावे । आठवें, नवमें अन्नकालमें भी ऐसा ही करे । दशव समय लवा, तीतर आदिक किसी पवित्र पक्षीके मांसरससे यथेच्छ स्नेह लवण मिलाकर अन्न खावे और गरम जल पीवे । ऐसे ही ग्यारहवें, बारहवें समय भी करे ॥ २१ ॥
अतऊर्द्धमन्नगुणानुक्रमेणोपभुञ्जनः सप्तरात्रेणप्रकृतिभोजन
मागच्छेत् ॥ २२ ॥
इसके उपरांत सात दिन तक सात्म्य और पथ्य भोजन करताहुआ अपने स्वाभा विक भोजन पर आजाय ॥ २२ ॥
विरेचनविध | अथैनंपुनरेवस्नेहस्वेदाभ्यामुपवाद्यानुपहतमनसमभिसमीक्ष्य सुखोषितं सुप्रजीर्ण भक्तं कृ तहामवलीमङ्गलजप्यप्रायश्चित्तमिष्टतिथिनक्षत्रकरणमुहूर्ते ब्राह्मणानुस्वस्तिवाचयित्वात्रिवृतकल्कमक्षमात्रांयथार्हालोडनप्रतिविनीतंपाययेत् ॥ २३ ॥
अव फिर स्नेहन स्वेदन करके सर्वदुः खरहित सुखपूर्वक बैठे हुए इसको पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर होम, बलिदान, मंगलाचरण, जप, प्रायश्चित्त आदि कराके शुभ तिथि, नक्षत्र, करण, मुहूर्त में ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन और पुण्या. हवाचन कराके एक वहेडेके समान ( अथवा जितना उचित हो ) निशोथका कल्क लेकर पानी में घोलकर पिलादेवे ॥ २३ ॥
प्रसमीक्ष्य दोष भेषजदेशकालबलशरीराहारासात्म्य सत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणिविकारांश्च सम्यक् विरिक्तञ्चैनंवमनाक्तेन धूमवर्जेन विधिनोपपादयेदाबलवर्णमतिलाभात् ॥ २४ ॥
फिर-दोष, औषध, देश, काल, बल, शरीर, आहार, सात्म्य, सत्व, प्रकृति, वय, तथा अन्य व्यवस्था, और रोगोंको विचारकर तथा रोगीको उत्तम विरेचन होचुका - यह विचारकर जबतक बल वर्ण ठीक न होजाय तब तक वमनमें कही विधिके वर्ताव करता है | परंतु वमन में कहेहुए धूमपानको न करे ॥ २४ ॥