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चरकसंहिता-भाट बलवणापपन्नञ्चनमनुपहतमनसमभिसमीक्ष्यसुखोषितसुप्रजीर्णभक्तशिरःस्नातमनुलिप्तगात्रंस्रग्विणमनुपहतवस्त्रसंवीतमनुरूपालंकारालंकृतंसुहृदांदयित्वाज्ञातीनांदायेदथै नकामेष्वेवसृजेत् ॥ २५॥ जब वह मनुष्य बलवर्ण युक्त होजाय, और मन प्रसन्न हो तब पहले दिनका अन्न जीर्ण होनेपर सुखपूर्वक विठाकर शिरसे स्नान करावे। और शरीरमें चंदनादि सुगंधित लेप कर-फूलमाला,शुद्ध हलके वस्त्र और यथायोग्य वस्त्र आदिसे शोभा. यमान कर इसके मित्र और बांधवोंके दर्शन करावे । फिर इसको इसकी इच्छानु. सार वर्तावकी आज्ञा देवे ॥ २५ ॥
भवंतिचात्र । अनेनविधिनाराजाराजमात्रोऽथवापुनः । यस्य वाविपुलंद्रव्यससंशोधनमर्हति ॥ २६॥ दरिद्रस्त्वापदंप्राप्य प्राप्तकालविरेचनम् । पिवेत्काममसंभव्यसम्भारानपिदुर्लभान् ॥ २७ ॥ यहां कहते कि, इस विधिसे राजा अथवा राजाओंकी समान धनिक पुरुष जिसके यहां बहुत द्रव्य हो उसको शोधन करना चाहिये ॥ २६ ॥ और दरिद्रीके पास सव सामान हो नहीं सकता इसलिये जब उसको कोई वमन विरेचन साध्य. रोग होय उसी समय यथासंभव योग्य औषध देकर आरोग्य करे ।। २७ ॥
नहिसर्वमनुष्याणांसन्तिसर्वपरिच्छदाः । नचरोगानवाधन्ते दरिद्रानपिदारुणाः ।। २८ ॥ यद्यच्छक्यमनुप्यणकर्त्तमौपधमापदि । तत्तत्सेव्ययथाशक्तिवमनान्यशनानिच ॥ २९ ॥ क्योंकि सब मनुष्यों के यहां सब साधन नहीं होसकते और रोग तो दरिदियोंको भी वसाही दारुण कष्ट देते हैं। इसलिये जिससे जिस प्रकार यल हो जैसी, औषध आदि होसकती हो उसको रोग होनेपर वैसे ही ययाशक्ति शोधन और भोजनादि करने चाहिय ॥ २८ ॥ २९ ॥
मलापहरोगहरंवलवर्णप्रसादनम् । पित्वासंशोधनंसम्यगायुपायुज्यतचिरम् ॥ ३०॥ उत्तम प्रकार संशोधन करने दुष्ट मल और रोग नष्ट होते हैं । तया वल और वर्ण उत्तम होते हैं और आयु दीर्य होती हैं ॥३०॥