________________
सूत्रस्थान-अ० १५ (१७३ ) न्यक्चसमारब्धंकर्मसिद्धयतिव्यापद्यतेवानियमेन ! तुल्यंभ. वतिज्ञानमज्ञानेनेति ॥ २॥
हे भगवन् ! इनमें कोई संशय नहीं कि सब सामग्री समीप रहनेसे आपत्तिकै समय आपत्ति दूर करनेमें काम आती है।परंतु ज्ञानवान् वैद्यको पहलेसे ही इस प्रकार विचारकर कार्य करना चाहिये जिस प्रकार कार्य करनेसे विना विघ्नके औषधि प्रयोगका फल सिद्ध होसके,अर्थात् पहले ही विचारकर ऐसी रीतिसे वमन विरेचनकी औषधि प्रयुक्त करनी चाहिये जिससे बीच में कोई उपद्रव ही न हो और ठीक वमन विरेचन होजाय क्योंकि समझकर भलेप्रकार प्रयोग करनेसे सब कार्य. ठीक सिद्ध होजाते हैं । विना विचारे अनुचित रीतिसे प्रयोग कियाजाय तो उसमें उपद्रवरूप विपत्ति अवश्य होतीहै । बस, इससे यह नियम सिद्ध है कि सम्यक प्रयोगसे कर्मकी सिद्धि होतीहै। और असम्यक् प्रयोगसे कर्ममें विपत्ति अर्थात् विघ्न. होताहै । यदि ऐसा न हो तो फिर जानकारी और अनजानपनेमें फरक ही क्या रहा अर्थात् चिकित्साका जानना और न जानना दोनों बराबर है ॥ २॥
तमुवाचभगवानात्रेयः । शक्यंतथाप्रतिविधातुमस्माभिरस्मद्विधर्वाप्यग्निवेशयथाप्रतिविहितेसिद्धयेदेवौषधमेकान्तेनतच प्रयोगसौष्ठवमुपदेष्टुंयथावन्नहिकश्चिदस्ति ।यएतदेवमुपदिष्टमुपधारयितुमुत्सहेत ॥३॥ यह सुनकर आत्रयं भगवान् कहनेलगे कि हे अग्निवेश ! जैसा तुम कहतहोऐसा, विचारकर कार्य हम लोग और हमारे समान अन्य वैद्य भी करसकतेहैं । जिस प्रकार प्रयोग करनेसे वमनादि किसी कार्यमें कोई विघ्न न हो। और उसी प्रकारके. प्रयोगोंकी सुंदरताका उपदेश भी किया जा सकता है । परंतु इस प्रकारके उपदे. शको सब कोई धारण नहीं करसकते ॥ ३ ॥
उपधार्यवा तथाप्रतिपत्तुप्रयोक्तुं वा। सूक्ष्माणिहिदोषभेषजदेशकालबलशरीराहारसात्म्यसत्त्वप्रकृतिवयसामवस्थान्तराणि ॥ ४ ॥ यान्यनुचिन्त्यमानानिविमलविपुलबुद्धेरपिबुद्धिमाकुलीकुर्यु:किंपुनरल्पबुद्धः ॥ ५ ॥ यदि कोई समझही लेवे अर्थात् उस प्रयोगविधिको धारण भी करले तो उन प्रयोगोंको यथोचित करलेना कठिन है। क्योंके दोष, औषध, देश, काल, वल, गरीर, आहार, सात्म्य, सत्त्व, प्रकृति,अवस्था, इनका यथोचित विचार बहुत सूक्ष्म