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चरकसंहिता - भा० टी० 1
स्वभाववादियों के मतका खण्डन ।
विद्यात्स्वाभाविकंषण्णांधातूनां यत्स्वलक्षणम् । 'संयोगे चवियोगेच तेषां कर्मैव कारणम् ॥ १०॥
यदि कहो कि यह स्वाभाविक धर्म है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश और आत्मा इनके संयोग होनेसे उत्पत्ति और वियोग होनेसे नाश होजाता है तो बतलाइये इन सबके संयोग और वियोग होने में कारण कौन है यदि कहो पूर्व जन्मका कर्म कारण है तो पुनर्जन्म सिद्ध होगया । नहीं तो संयोग वियोगमें कोई हेतु नहीं दीखता ॥ १० ॥
(२१८)
परनिर्माणवादियों का खण्डन । अनादेश्चेतनाधातानेंष्यतेपरनिर्मितिः । . परआत्मासचे द्धेतुरिष्टोऽस्तुपरिनिर्मितिः ॥ ११ ॥
और अनादि चैतन्य आत्मा कोई बना भी नहीं सकता क्योंकि जो वस्तु बनाईं जाती हैं वह जिस दिन बनी वह दिन उसकी आदिका है इसलिये जो अनादि है उसको कोई बना नहीं सकता । यदि कहो परमात्मा इसका बनानेवाला है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकेि परमात्माको कर्त्ता माननेमें आस्तिकतामें कोई हानि नहीं ॥ ११ ॥
यहच्छावादियों का विषय ।
नपरीक्षा नपारीक्ष्यंनकर्ताकारणंनच । नदेवानर्षयः सिद्धाः कर्मकर्मफलंनच ॥ १२ ॥ नास्तिकस्यास्तिनैचामायच्छोपहतात्मनः । पातकेभ्यः परञ्चैतत्पातकनास्तिकग्रहः ॥ १३ ॥ तस्मान्मति॑िविमुच्येताममार्गप्रसृतांबुधः । सत बुद्धिप्रदीपेन पश्येत्सर्वयथातथम् ॥ १४ ॥ इति ॥
यदि कहो प्रमाणसे कोई परीक्षा नहीं और न परीक्षाका कोई विषय हैं । नं कोई कर्ता है। न कारण है। न ऋषिहै। न देवता है। न सिद्ध है। न कुछ कर्म है। न कर्मका फल होता है । न और कुछ हैं । न आत्मा है । मरण जन्म भी ऐसे ही है इसकाभी कोई कारण नहीं । ऐसे अंटसंट बकनेवालेके समीप जाना भी पापोंसे बढकर महापाप है । क्योंकि इस मूर्ख निंदक नास्तिक को किसी प्रकार मानना तो है ही नहीं, इससे बात करना भी मूर्खता है ॥ १२ ॥ १३ ॥ इसलिये धृष्टता और कुमा