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चरकसंहिता - भा० टी० ।
हलका होजाय । तथा शरीरका विबंधस्तंभ, सुप्ति, पीडा, गुरुता यह सब दूर होकर शरीर हलका होजाय तब उस पिंडिका के सहारेसे उसको धीरे २ छोडकर सहजसे हारकी ओर आना | फिर बाहर आते ही नेत्रोंके आरामके लिये शीत जल स्पर्श न करना। जब सन्ताप और क्लम दूर होजाय तब एक मुहूर्त से सुखोष्ण जलसे स्नान करके पथ्य भोजन करना इसको जैताकस्वेद कहते हैं ॥ ४८ ॥
अश्मघनस्वेदका लक्षण ।
शयानस्यप्रमाणेन घनामश्ममयशिलाम् । तापयित्वामारुतनैर्दारुभिः संप्रदीपितैः ॥ ४९ ॥ व्यपोह्य सर्वानङ्गारान्प्रोक्ष्यचेवोष्णवारिणा । तांशिलामथ कुर्वीत कौशेयाविक संस्तराम् ॥ ॥ ५० ॥ तस्यां स्वभ्यक्तसर्वाङ्गः शयानः स्विद्यते सुखम् । रौरवाजिनकौशेय प्रावाराद्यैस्सुसंवृतः ॥ ५१ ॥ इत्युक्तोऽश्मघनस्वेदः कर्पूस्वेदः प्रवक्ष्यते ॥ ५२ ॥
रोगीके सोनेके प्रमाण योग्य एक शिलाको वातनाशक लकडियोंकी आगसें गरम करे | फिर सब अंगार हटाकर गरम पानीसे धो देवे । फिर उस धुली हुई गरम शिलापर रेशमी वस्त्र या कंवले विछावे । उसपर वातनाशक तेलोंसे अभ्यक्त रोगको सुलावे तो सुखपूर्वक पसीने आवें । रुरु मृगके चर्मसे या रेशमी कपडेसे अथवा अन्य वस्त्रसे आच्छादित हो रोगी इस शिलापर लेटे । इसको अश्मधन स्वेद कहतेहैं ॥ ४९ ॥ ५० ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ खानयेच्छयनस्याधः कर्पूस्थानविभागवित् । दीप्तैरधूमैरङ्गारेस्तांकäपूरयेत्ततः । तस्यामुपरिशय्यायां स्वपन् स्विद्यतिना सुखम् ॥ ५३ ॥
बुद्धिमान् वैद्य रोगीको शय्याके नीचे एक भीतर से खुले मुखवाला छोटा गढा बनाकर निर्धूम प्रदीप्त अंगारा उसको भरदे । उसके ऊपर बिछी हुई शय्या पर पडा रोगी सुखपूर्वक पसीना लेताहं इसको कपुंस्वेद कहतेहै ॥ ५३ ॥ कुटी स्वेदका वर्णन | अनत्युत्सेधविस्तारांवृत्ताकारामलोचनाम् । घनभित्तिंकुरुत्वाकुष्टाः सम्प्रलेपयेत् ॥ ५४ ॥ कुटीमध्यो भपक्शय्यांस्वातीर्णा चपकल्पयेत्। प्रावाराजिन कोशेय कुत्थकम्बलगोलकैः