________________
सूत्रस्थान-अ० १४.
(१६७, तञ्चखादिराणामाश्वकर्णादीनांवाकाष्ठानांपूरयित्वाप्रदीपयेत्। सयदाजानीयात्साधुदग्धानिकाष्ठानिगतधूमानिअवतप्तश्चकेवलमनिनातदग्निगृहस्वेदयोग्येनचोष्मणायुक्तमिति ॥ ४६ ॥ तत्रैनंपुरुषवातहराभ्यक्तंगात्रवस्त्रावच्छन्नंप्रवेशयेत्प्रवेशयंश्चैनमनुशिष्यात् । सौम्यप्रविशकल्याणायारोग्यायचेति । प्रवि. श्यचैनांपिण्डिकामधिरुह्यपाश्वापरपावाभ्यांयथासुखंशयीथाः नचत्वयास्वेदमूर्छापरीतेनापिसतापिण्डिकैषाविमोक्तव्यात्मा आप्राणोच्छासात्। भ्रश्यमानोह्यतः पिण्डिकावकाशाद्वारमनधिगच्छन्स्वेदमूच्छापरीततयासद्यः प्राणाञ्जह्याः ॥४७॥ इसके भीतर खैर या शालविशेषकी लकडीके 'अंगार रक्खे जव धूम निकललेवे और भीवरका स्थान तपगयाहो और स्वेदनयोग्य गर्मी से भरजाय । फिर रोगीको वातनाशक तेलोंसे स्निग्धगात्र कर कपडा लपेटकर इस गर्म घरमें प्रविष्ट करावे,
और कहे हे सौम्य ! अपनी आरोग्यता और कल्याणके लिये इस घरमें प्रवेश कर। इस बीचमें बनीहुई पिंडका पर चढकर जिस करवटसे तुझे सुभीता हो उस करखट सोजा । तुमको इस पर लेटनेसे पसीने आवेंगे उस समय यदि तुमको मूर्छा भी आवे तो वहाँसे नहीं उठना, जब तक तुम्हारे प्राण चलतेरहें तव तक उसको मत त्यागो । याद तुम डरकर उसके ऊपरंसे एकदम भागआओगे तो द्वारमें आते ही पसीने और मूर्छासे प्राण निकल जायंगे ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
तस्मापिण्डिकामेनांनकथञ्चनमुञ्चेथाःत्वंयदाजानीयाः वि. गताभिष्यन्दमात्मानंसम्यक्प्रसुतस्वेदपिच्छंसर्वस्रोतोविमुक्तं लघुभूतमपगतविबन्धस्तम्भमुतिवेदनागौरवमिति । ततस्तां पिण्डिकामनुसरन्द्वारंप्रपद्येथाः। निष्क्रम्यचनसहसाचक्षुषोः परिपालनार्थशीतोदकमुपस्पृशेथाः अपगतसन्तापक्लमस्तुमुहूर्तात्सुखोष्णेनवारिणायथान्यायपरिषिक्तोऽश्नीयाइति जेन्ताकस्वेदः॥४८॥ इसलिये उस पिंडिकाको मत छोडना, जव तुम्हारा शरीर बिलकुल कफ रहित होजाय और पसीनका वाव सब होचुके, शरीरके सब छिद्र खुल जाय, और शरीर