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(१४८) । चरकसंहिता-भा० टी० ।
जो मनुष्य स्नेहानेके अभ्यासवाले हों, जो भूख प्यासके सहन करनेकी शक्ति वाले हों, जिसकी जठराग्नि उत्तम बलवान् हो, जो शरीरम बलिष्ठ हो,गुल्मरोगवाला सांपका काटाहुआ, विसर्परोगवाला, उन्मत्त, मूत्रकृच्छ्युक्त, और जिसका मल कठोर हो, इन उपरोक्त मनुष्योंको स्नेहकी प्रधान मात्रा देनी उचित है २९॥३०॥
प्रधानमात्राके गुण। पिवेयुरुत्तमामात्रांतस्याःपानेगुणाञ्छृणु। विकाराशमयत्येषा शीघसम्यक्प्रयोजिता ॥३१॥दोपानुकार्पणीमात्रासर्वसार्गानुसारिणी । वल्यापुनर्नवकरीशरीरेन्द्रियचेतसाम् ॥ ३२ ॥ इन मनुष्याको प्रधान मात्रासे स्नेह पान करानेसे जो गुण होतेहैं सो सुनो। इस प्रधानमात्राका विधिसे प्रयोग किया हुआ सब विकारोंको शीघ्र नष्ट करताहै।वढेहुए. दोषाको खींचकर निकालदताहै । शरीरके सब छिद्रांम स्नेहका प्रवेश होजाताहै, शरीरका वल वढता है और शरीर, मन, इंद्रियं इनमें नवीनता आजातीहै ३१॥३२॥
मध्यममात्राक योग्य पुरुष । अरुकस्फोटपिडकाकण्डुपामाभिरर्दिताः । कुष्टिनश्चप्रमूढाश्च । वातशोणितकाश्चये ॥३३॥ नातिवहाशिनश्चैवमृदुकोष्टास्तथैवच । पिवेयुर्मध्यमांमात्रांमध्यमाश्चापियेवले ॥ ३४ ॥ मात्रैपामन्दविभ्रंशानचातिवलहारिणी। सुखेनचस्नेहयतिशो. धनायचयुज्यते ॥ ३५॥
और पिडिका, विस्फोटक, अरुषिका, खाज, पामा, कुष्ठ, प्रमेह, वातरक्त, इन रोगांसे पीडितांको तथा सामान्य आहार करनेवालोको, मृदुकोष्टयुक्तांको और साधारण वलवालोंको स्नेहकी मध्यम मात्रा देनी चाहिये, क्योंकि मध्यम मात्रा. न तो अधिक विरेचन करताह और न शरीरमें अधिक शिथिलता लाती है। यह मावा विना किसी तकलीफके स्नेहन करनेवाली है और शोधनके लिये प्रयुक्त कीजातीहै ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
हस्वमात्राके योग्य पुरुष । यतवृन्दावालाश्चसुकुमाराःसुखोचिताः । रिक्तकोष्टत्वमहितं चेपांमन्दानयश्चये ॥ ३६ ॥ ज्वरातीसारकासश्चयपांचिरसमुस्थितः । स्नेहमात्रांपिवयुस्तेह्रस्वायंचावरावले ॥३७ ॥