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सूत्रस्थान - - अ०.१३....
( १५७) अथवा गुड, दही, दूध, और तिलोंका प्रयोग न करे क्योंकि यह इनके रोगोंको: बढाते हैं एवं विकाररहित मनुष्योंको विकाररहित अनुकूल उचित द्रव्योंसे सिद्ध कर स्नेहपान करावे ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ ८९ ॥ ९० ॥
पिप्पलीभिर्हरीतक्यासिद्धेस्त्रिफलयापिवा । द्राक्षामलकयूषाभ्यांदनाचाम्लेनसाधयत् ॥ ९९ ॥
उनको - पीपल हरड, और त्रिफला के साथ सिद्ध कर अथवा आँवले और द्राक्षाके रस या कांजी के साथ सिद्ध कर त्रिकुटा बुरकाकर स्नेहपान करावे तो. मनुष्य स्निग्ध हो ॥ ९१ ॥
व्योषगर्भभिषकस्नेहपीत्वास्निह्यतितन्नरः।यवकोलकुलत्थानां रसाः क्षीरंसुरादधि ॥९२॥ क्षीरः सर्पिश्च तत्सिद्धं स्नेहनीयं घृतोतमम् । तेलमज्जावसासर्पिर्बदरत्रिफलारसैः ॥ ९३ ॥ योनिशुक्रप्रदोषेषुसाधयित्वाप्रयोजयेत् । गृह्णात्यम्बुयथावस्रंप्रत्रवत्यधिकंयथा ॥९४॥ यथाग्निर्जीर्य्यति स्नेहस्तथास्रवतिचाधिकः । यथावाक्लेद्यमृत्पिण्डमासिक्तंत्वरयाजलम्। स्रवतिस्रंसते स्नेहस्तथात्वरित सेवितः ॥ ९५ ॥
जो, बेर और कुलयीका यूष, दूध, मद्य, दही, एवं दूधका निकाला घृत इनसे सिद्ध किया वृत सव उत्तम स्नेहन है । तैल, मज्जा, वसा, घी, बेर, और त्रिफलाको क्वायसे सिद्ध स्नेह योनि और शुक्र के दोषोंमें प्रयुक्त करे । जैसे वस्त्र परिमाणकेroat ग्रहण करके अधिकको छोड देता है, ऐसे ही मनुष्यकी जठराग्नि परिमाणका स्नेह ग्रहण कर वाकीको मलद्वारसे निकालदेती है । जैसी मट्टीके डलेमें अधिक पानी पडनेसे उसको भिगोकर अधिक पानी बाहर चला जाता है। ऐसे ही मनुष्यकेशरीर में अधिक स्नेह जीर्ण न होकर झट बाहर निकल जाता है ९२ ॥ ९३ ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ लवणोपहिताःस्नेहाःस्नैहयन्त्यचिरान्नरम्। तद्ध्यभिष्यन्द्यरूक्षञ्चसूक्ष्ममुष्णंव्यवायिच॥९६॥ स्नेहमयेप्रयुञ्जीत ततः स्वेदमनन्तरम् ॥ स्नेहस्वेदोपपन्नस्यसंशोधन मथेतरमिति ॥ ९७ ॥ लवणके संयोगसे स्नेहपान किया हुआ मनुष्यको शीघ्र स्नेहन कर देता है । वह अभिष्यन्दि, सूक्ष्म, उष्ण, और शीघ्र व्यापक होजाता है । पहले स्नेहन, फिर स्वेदन, . फिर वमन, तदनंतर विरेचन, सबसे पीछे नस्य कर्म आदिसे शिरोविरेचन करे । ( परंतु स्नेहन वातरोग में ही हित है । सन्निपातादिकमें रूक्ष स्वेदन करे ) ॥ ९६ ॥ ९७ ॥