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सूत्रस्थान-अ० १३. जब तक पहला स्नेहपान कियाहुमा जीर्ण न होलेवे उसके उपर फिर वह नहीं __ पीना चाहिये । यदि उसके ऊपर फिर स्नेहपान करे तो इस मिथ्या उपचारसे अनेक दारुण रोग उत्पन्न होते हैं ॥ १२॥
कोष्ठानुसार स्नेहपानविधि । मृदुकोष्ठस्त्रिरात्रेणस्निह्यत्यच्छोपसेवया।
स्निह्यतिक्रूरकोष्ठस्तुसप्तरात्रेणमानवः ॥१३॥ - जिस मनुष्यका कोष्ठ नरम होताहै वह तीन दिन अच्छा स्नेहपान करनेसे स्निग्ध होजाता है। और क्रूर कोष्ठवाला सात दिन स्नेहपान करनेसे निग्ध होता है ॥ ६३ ॥
मृदुकोष्ठव्यक्तिके विरेचन द्रव्य । गुडमिक्षुरसंमस्तुक्षीरमुल्लोडितंदधि । पायसंकसरंसर्पिः काश्मयंत्रिफलारसम् ॥ ६४ ॥ द्राक्षारसंपीलुरसंजलमुष्णमथापिवा । मद्यवातरुणंपीत्वामृदुकोष्ठोविरिच्यते ॥६५॥ विरेचयन्तिनैतानिक्रूरकोष्ठकदाचन । भवतिक्रूरकोष्ठस्यग्रहण्यत्युल्वणानिला ॥६६॥ गुड, इक्षुरस, दहीका पानी, दूध, अधबिलोया दही, खीर, कृसरा, घी, काश्मरीके फलोंका काथ, त्रिफलेका काथ, मुनक्काका काथ, पीलूका काथ, अथवां गर्म जल, इनके पीनेसे ही मृदुकोठेवालेको विरेचन होजाताहै । परन्तु क्रूर कोठेवालेको इन वस्तुओंसे विरेचन नहीं होता क्योंकि क्रूर कोष्ठवालेकी ग्रहणीकला वातप्रधान होती है इसीलिये कोष्ठमें क्रूरता और वातजन्य रूक्षता होनेसे विरेचन नहीं होता ॥ ६४ ॥६५॥६६॥ .
मृदुकोष्ठके लक्षण। उदीर्णपित्ताल्पकफाग्रहणीमन्दमारुता। . मृदुकोष्ठस्यतस्मात्ससुविरेच्योनरःस्मृतः॥६७॥ जिसकी ग्रहणीकलामें पित्त प्रधान है और कफ अल्प तथा वायु मंद है उसका कोष्ठ मृदु ( नरम )होताहै । इसलिये उसको सहजमें ही विरेचन होसकताहै॥६॥
स्नेहयुक्त अग्निका तीव्रत्व। . उदीपित्ताग्रहणीयस्यचाग्निबलंमहत् । भस्मीभवतितस्याश लेहःपीतोऽग्नितेजसा॥६८॥सजग्ध्वास्नेहमात्रांतामोजःप्रक्षा