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चरकसंहिता - भा० टी० ।
कालातियोगादिका वर्णन | शीतोष्णवर्षालक्षणाःपुनर्हेमन्तग्रीष्मवर्षा संवत्सरः सकालः । तत्रातिमात्रस्वलक्षणःकालः कालातियोगः । हीनस्वलक्षणः कालयोगः । यथा स्वलक्षणविपरीत लक्षणस्तुकालोमिथ्यायोगः कालः पुनः परिणाम उच्यते ॥ ४५ ॥
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जाड़ा, गर्मी, वर्षात, इन तीनोंमें क्रमसे शीत होना गमपडना, वर्षावरसना इन तीनका लक्षण है, इन तीन कालोंके समुदायको संवत्सर ( वर्ष ) कहते हैं इसीका नाम काल है । सो इस कालमें अपने २ समयपर सर्दी, गर्मी, वर्षा, का अत्यंत होना कालका अतियोग कहाजाताहै । न होना अयोग कहाता है । एवं अपने २ समय से आगे पीछे होने को और समय के विपरीत लक्षणों को कालका मिथ्यायोग कहते हैं कालको ही परिणाम भी कहते हैं ॥ ४५ ॥
इत्यसात्म्येन्द्रियार्थसंयोगः प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति ॥ ४६ ॥
इस प्रकार असात्म्य (आत्माके प्रतिकूल ) इंद्रिय तथा विषयों का संयोग, बुद्धिक दोष और कालका वर्णन किया गया है ॥ ४६ ॥
रोगोंके कारण । त्रयस्त्रिविधविकल्पाः कारणंविकाराणाम् । समयोगयुक्तास्तुप्रकृतिहेतवोभवन्ति ॥ ४७ ॥
इंद्रियार्थसंयोग, बुद्धि और कालका अतियोग, अयोग, और मिथ्यायोग यह तीन प्रकारका विकल्प - रोगों के उत्पन्न होनेका कारण हैं और इन तीनोंका ही सुप्रयोग होना आरोग्यताका कारण है ॥ ४७ ॥
सर्वपामेवभावानां भावाभावौनान्तरेणयोगायोगातियोगामध्यायोगात्समुपलभ्यते । यथासंयुक्तत्यापेक्षिणौहिभावाभाव ४८॥ संपूर्ण वस्तुओंका अभाव और सद्भाव यह दोनों मनुष्य के शरीर में किया करदें | वह क्रिया सम्यक् यांग अयोग, अतियोग मिथ्यायोग, इन भेदासे अलग २हैं | यह भाव और प्रभाव योगमं युक्तकी अपेक्षा करते हैं अर्थात् मन, वाणी, शरीर इनका युक्ति पूर्वक योग सुखका हेतु और अयुक्ति योग दुखका हेतु होता ॥ ४८ ॥
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तीनमकारके रोग |
त्रयोरोगाइ तिनि जागन्तुमानसाः तत्रनिजः शरीरदोषसमुत्थः ।