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सूत्रस्थान-अ० ११. (१३३) रोगको नष्ट करे उसको बहि परिमार्जन कहतेहैं। शस्त्रद्वारा-छेदन, भेदन, व्यधन, विदारण, लेखन, उत्पाटन, पृच्छन, सीवन, एषण तथा क्षारकर्म और जलौका
आदिक प्रयोगको शस्त्रप्रणिधान कहतेहैं ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ बुद्धिमान् मनुष्य उत्पन्न हुए रोगकी शांतिके लिये अंतःपरिमार्जन अथवा वाह्यपरिमार्जन या शस्त्रप्रणिधान, इन तीन उपायोंको करनेसे ही सुखको प्राप्त होसकताहै ॥ ६५ ॥
__ वालकोंकी अज्ञानताका फल ।। बालस्तुखलुमोहाद्वाप्रमादाद्वानबुध्यते । उत्पद्यमानंप्रथम रोगं शत्रुमिवाबुधः ॥ ६६ ॥ अग्राहिप्रथमभूत्वारोगःपश्चाद्विवर्द्धते । सजातमूलोमुष्णातिवलमायुश्चदुर्मतेः ॥ ६७ ॥ नमोलभतेश्रद्धांतावद्यावन्नपीड्यते । पीडितस्तुमतिपश्चात् कुरुतेव्याधिनिग्रहे ॥ ६८॥ अथपुत्रांश्चदारांश्चजातींश्चाहूय भाषते । सर्वस्वेनापिमेकश्चिद्भिषगानीयतामिति ॥ ६९ ॥ तथाविधश्चकःशक्तोदुर्वलंव्याधिपीडितम् । कृशक्षीणेन्द्रियं दीनंपरित्रातुंगतायुषम् ॥ ७० ॥सत्रातारमनासाद्यवालस्त्यजतिजीवितम्। गोधालांगूलबद्धवाकृष्यमाणाबलीयसा ॥७१ ॥ वालक अर्थात् अज्ञानी मनुष्य पहले तो उत्पन्न होते हुए रोगको मोह अथवा प्रमादवश तुच्छ मानताहै । जैसे मूर्खपुरुष अपने शत्रुको तुच्छ समझताहै ॥६६॥ परन्तु जब पहले उत्पन्न होते ही रोगका यत्न नहीं किया जाता फिर वह रोग वृद्धिको प्राप्त होकर जड पकड जाताहै और पहले ही यत्न न करनेवाले मूर्खके बलको तथा आयुको नष्ट करदेताहै ॥ ६७ ॥ जब तक मूर्खमनुष्यको रोग अत्यंत पीडित नहीं करदेता तब तक उस रोगको यत्न करनेके लिये उसकी श्रद्धा नहीं होती। जब रोगसे व्याकुल होजाताहै फिर यत्न करानेके लिये प्रयलवान होताहै । और अपने पुत्र स्त्री तथा बांधवोंको बुलाकर कहताहै कि चाहे.सर्वस्व भी खर्च होजाय परंतु किसी योग्य वैद्यको बुलाकर मेरी चिकित्सा करो ॥ ६८।। ॥ ६९ ॥ फिर वैसे दुर्बल, असाध्य व्याधिसे पीडित हुए, कृश, तथा क्षीण इंद्रिय होनेपर दीन, और गतायुकी रक्षा करनेको कौन समर्थ होसकताहै अर्थात् कोई नहीं। फिर जब उसकी कोई चिकित्सा नहीं करसकता तब वह मूर्ख अपनी आयुको त्याग देता है अर्थात् रोगवश होकर मृत्युको प्राप्त होताहै जैसे गोहकी पूंछको कोई