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(१४२) चरकसंहिता-भा० टी०॥ अपनी प्रकृति ( स्वभाव, ठीक प्रमाण ) में स्थित हुए पुरुषकी इंद्रियोंको वलवान फरते हैं और वल, वर्ण तथा सुखको उत्पन्न करते हैं । और दीर्घ आयुको देतेहैं । जिसके प्रभावसे मनुष्य(धर्म अर्य काम मोक्ष)इन पुरुषार्थोंका साधन करसकता है अर्थात् इस लोक और परलोकका सुख प्राप्त करसकता है। और विकारको प्राप्तहुए यह तीनों ऊपर कहे हुए गुणोंसे विपरीत ( दोषोंको ) करते हैं । जैसे जाडा गर्मी, वर्षा यह तीन ऋतुभी विकारको प्राप्त हुई संसारमें प्रलय कालमें अशुभ करती हैं ऐसे ही यह वात, पित्त, कफ, तीनों शरीरमें विकारको प्राप्त होनेसे अशुभ करहें । इस प्रकार भगवान आत्रेयके कहे वचनको सुनकर सव ऋषि आनन्दसे अनुमोदन करने लगे ॥ १७ ॥
भवतिचात्र । तदात्रेयवचःश्रुत्वासर्वएवानुमोनिरे । ऋषयोऽभिननन्दुश्चयथेन्द्रवचनंसुराः ॥१८॥ जैसे इन्द्रके वचनको सुन सव देवता अनुमोदन करनेलगे वैसे ही भगवान आत्रेयके वचनको सुनकर सब ऋपि ठीककहा २ कहकर आशंसा करनेलगे ॥१८॥
अध्यायका संक्षिप्त वर्णन । तत्रश्लोको । गुणाःषद्विविधोहेतुर्विविधंकर्मतत्पुनः। वायोश्चतुर्विधंकर्मपृथक्चकफपित्तयोः ॥ १९ ॥ महर्षीणांमतिर्यायापुनर्वसुमतिश्चया । कलाकलीयेवातस्यतत्सर्वसम्प्रकाशितम् ॥ इति ॥ २०॥
निर्देशचतुप्कम् । अग्नीत्यादिवातकलाकलीयोऽध्यायःसमाप्तः । अध्यायकी पूर्तिमं यह दो श्लोक है इस वातकलाकलीय नामके अध्यायमें वायुके
गुण, दोप्रकारकं हेतु और अनेक प्रकारके वायुके कर्म, कुपित अकुपित भेट्स पिन और काके दो कर्म, वात पित्त कफ के सम्बन्धमें ऋषियोंका मत, तथा पुनमुजीका मत वर्णन किया गया है ॥ ११ ॥ २०॥ वि भीमलमणीनायुर्वेदसंहितायां पटियालाराज्यान्वर्गदटकसालनिवासिवैद्य
गरन पं० रामप्रसादेवापान्यायविरचितप्रसादन्यायभाटीकायां
मामलारनीलो नाम द्वादशमोध्यायः ॥ १२॥