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सूत्रस्थान - अ०. १३.
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घृत-वात और पित्तको नष्ट करता है । रस, शुक्र, बल, इनको बढाता है, अग्निकों मंदकरनेवाला, शरीरको मृदुकारक, स्वर तथा वर्णको प्रसन्न अर्थात् उज्ज्वलकरनेवाला है ॥ १२ ॥
. तैलके गुण ।
मारुतनंनचश्लेष्मवर्द्धनं बलवर्द्धनम् ।
त्वच्य मुष्णंस्थिर करंतैलयोनिविशोधनम् ॥ १३ ॥
तैल - वातनाशक है, कफको बढाता नहीं, बलको वढानेवाला, और त्वचाको उत्तम बनानेवाला, उष्ण, दृढकारक, और योनिको शुद्ध करताहै ॥ १३ ॥ बसाके गुण | विद्वभग्नाहतभ्रष्टयोनिकर्णशिरोरुजि । .
पौरुषोपचये स्नेहे व्यायामचेष्यतेवसा ॥ १४ ॥
चरवी - छिदेहुए और कटेहुए में हित करती है । योनिभ्रंश, कानका शूल, शिरपीडा, इनको दूर करती है । तथा पुरुषार्थकी वृद्धिकारक, चिकना करनेवालों, कसरतमें हितकारी है ॥ १४ ॥
मज्जाकें गुण !
वलशुक्र रसश्लेष्ममेदोमज्जाविवर्द्धनः ।
मज्जाविशेषतोऽस्थनाञ्चबलकृत्स्नेहनेहितः ॥ १५ ॥
मज्जा - चल, वीर्य, रस, कफ, मेद, मज्जा, इनको बढाती है और विशेषतासे हड्डियोंमें वल देती है और चिकनाई करनेमें हित है ॥ १९ ॥
हपानका समय 1
सर्पिश्शरदिपातव्यं वसामजाचमाधवे । तैलप्रावृषिनात्युष्णं शीतेस्नेहपिबेन्नरः ॥ १६ ॥ वातपित्ताधिकेरात्रावुष्णेचापिपिबेन्नरः । - इलेष्माधिकेो देवाशीतेपिबेच्चामलभास्करे ॥ १७ ॥ धीका शरद ऋतु, चरबी और मज्जाका वसंतमें, तेलका वर्षामें उपयोग करें। और जिस कालमें अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दों न हों उस समय स्नेह पीवे ॥ १६ ॥ वात और पित्तकी अधिकतामें तथा गर्म ऋतुमें रात्रिके समय स्नेहपान करे। कफ की अधिकतामें और शीतकालमें निर्मल आकाश होनेपर दिनमें स्नेहपान करे ॥ १७ ॥
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