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चरकसंहिता-भान्टी। स्पर्श स्वभाववाला शब्द और स्पर्शके वोधका कारण,हर्ष और उत्साहका कारण, अग्निको प्रेरण करनेवाला, दोषोंका शोषण करनेवाला, मलाको निकालकर वाहिर फेंकनेवाला, स्थूल और सूक्ष्म स्रोताको भेदन करनेवाला, गर्भकी आकृति बनानेवाला, और आयुका आधारभूत है । यह कर्म प्रकृतिस्थ अर्थात् कोपको विना . प्राप्त हुए वायके है ॥ ७॥
कुपितरायुके कर्म। कुपितस्तुखलुशरीरेशरीरंनानाविधैविकारैरुपतपतिवलवर्णसुखायुपामुपघातायमनोव्याहर्षयतिसर्वेद्रियाण्यपहन्ति । विहन्तिगर्भानविकतिमापादयत्यतिकालंधारयति । भयशोकमोहदैन्यातिप्रलापाञ्जनयतिप्राणांश्चोपरुणद्धि। प्रतिभूतस्यखल्वस्यलोकेचरतःकर्माणीमानिभवन्ति ॥८॥ शरीरस्य वायु कुपित होनेपर शररिको अनेक प्रकारके रोगास पीडित करताहै । तथा बल, वर्ण, सुख और आयुको नष्ट करताहै। और गर्भको नष्ट अथवा विकारगुक्त करदेताह या प्रसवमें अतिकाल अर्थात् विलम्ब करदेतीहै । भय, शोक, मोह, बकवाद,दीनता, इनको उत्पन्न करदेताहै। तथा प्राणांकी गतिको रोकदेताहै यह शरीरम कुपित हुए वायुके कार्य हुए ॥ ८॥
वाह्य वायुके कर्म । तद्यथा।धरणीधारणंज्वलनोज्ज्वालनम् । आदित्यचन्द्रनक्षऋग्रहगणानांसन्तानगतिविधानसृष्टिश्चमेधानाम् । अपाञ्च विसर्गःप्रवर्तनंस्रोतसांपुप्पफलानाञ्चाभिनिवर्त्तनमुद्भेदनश्चीनिदानामृतनांप्रविभागः । विभागोधातनांधातुमानसंस्थानव्याक्तिः । वीजाभिसंस्कारःशस्याभिवर्द्धनंविरूदोपशोषणमवकारिकविकारश्चेति ॥ ९ ॥ यायवायु-प्रकृतिस्थ यर्थात् अपने उचित स्वभावम रहनेसे संसारमें विचरता हुआ इन फांको करताह ।।
जस-पृथ्वीका धारण, अग्निका ज्वालन, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, और ग्रहगणाका अपने कामपूर्वक गतिने घुमाना तया भेव आदिको उत्पन्न करना, आकाशसे जलका पाटन करना,घांता (सोतो) अर्थात् झरनामसे जलको प्रवर्तन करना, पुष्प, प.ल. आदिम का अपने समय में उत्पन्न होना, वृक्षादि उद्भिज साष्टिका