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(१३२) चरकसंहिता-भा० टी०।
जो वैद्य औषधप्रयोग आदिमें कुशल हैं तथा हेतु, रोग, चिकित्साके ज्ञान विज्ञानमें सिद्धिसम्पन्न हैं, वह मुखके और जीवनके देनेवाले सदैव वैद्यगुणसम्पन्न वैद्य होते हैं इनहीम वैद्य शब्दकी स्थिति है ॥ ६१ ॥
औषधियों के भेद । त्रिविधीपमिति । देवव्यपाश्रयंयुक्तिव्यपाश्रयंसत्त्वावजयश्च। तत्रदेवव्यपाश्रयमन्त्रौषधिमणिमङ्गलनियमप्रायश्चित्तोपवासस्वस्त्ययनप्रणिपाततीथेंगमनादि । युक्तिव्यपाश्रयंपुनराहारौषधद्रव्याणांयोजना । सत्त्वावजयःपुनरहितेभ्योऽथेभ्यो मनोनिग्रहः ॥६२ ॥ तीन प्रकारका औषध होती हैं । दैवव्यपाश्रय १ युक्तिव्यपाश्रय २, सत्त्वावजय ३ इनमें मन्त्र, मंगल,औषधी, रल इनका धारण, मंगलाचरण, बलि, पूजन, होम, नियम,प्रायश्चित्त, उपवास, स्वस्तिवाचन, प्रणाम, तीर्थगमन आदिको दैवव्यपाश्रय औषध कहतेहैं । युक्तिपूर्वक आहार और औषधक सेवनको युक्तिव्यपाश्रय कहते हैं । अहित अर्थोसे मनको रोकनेका नाम सत्वावजय औषध है ॥ ६२
शारीरिक रोगोंम औषधभेद।। शरीरदोपप्रकोपेखलुशरीरमेवाश्रित्यप्रायशस्त्रिविधमौपधमिच्छ. न्ति । अन्तःपरिमार्जनंवहिःपरिमार्जनंशास्त्रप्रणिधानञ्चति । तन्त्रान्तःपरिमार्जनंयदन्तःशरीरमनुप्रविश्यौषधमाहारजातव्याधीनप्रतिमार्टि। यत्पुनर्वहिःस्पर्शमाश्रित्याभ्यङ्गस्वेदप्रदेहपरिपेकोन्मर्दनायेरामयान्प्रमार्जितहहिःपरिमार्जनम्॥६॥ शस्त्रप्रणिधानंपुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छन्नसीवनपणक्षारजलोकाश्चति ॥ ६४ ॥ प्राज्ञोरोगेसमुत्पन्ने वाधनाभ्यन्तरणवा । कर्मणालभतेशर्मशस्त्रोपक्रमणेनवा६
शारीरक दोषाक कोपको शान्त करने के लिये बहुत करके तीन प्रकारकी औपघका अपांग किया जाताहीवह तीन प्रकारके औषध यह है-अंतःपरिमार्जन.वहि:परिमार्जन और शखमणिधान । इनमें जो मोषध शरीरके भीतर जाकर मिथ्या आहागादिए गंगको नष्ट करे उसको अंतःपरिमार्जन कहते हैं। जो औपच वाहिवं. आश्रयस अर्यात् मालिश, पसीना, प्रलेप, पारंपक उद्धर्तन आदिकं संयोगले